Book Title: Sramana 1991 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ मूल अर्धमागधी के स्वरूप की पुनर्रचना १५ द यथावत् भी रहता है और पालि तथा पैशाची में त। अर्धमागधी का सम्बन्ध मागधी से अधिक है न कि महाराष्ट्री से । उसका मागधी शब्द ही उसे प्राचीनता का अधिकार देता है और इस दृष्टि से जैन आगमों के प्राचीन अंशों में जो जो प्राचीन रूप (नामिक, क्रियापदिक तथा कदंत ) मिलते हैं वे उसे पालि भाषा के नजदीक ले जाते हैं न कि महाराष्ट्री प्राकृत के निकट । मूलतः अर्धमागधी भाषा मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण नहीं था यह तो परवर्ती प्रक्रिया है। __इस चर्चा का उपरोक्त वाक्य यदि भगवान महावीर के समय का है, उनके मुख से निकली हुई वाणी है या उनके गणधरों द्वारा उसे भाषाकीय स्वरूप दिया है तब तो उसका पाठ होना चाहिएएस धम्मे सुद्धे नितिए सासते' समेच्च लोगं खेत्तन्नेहि पवेदिते । और यदि यह वाणी भगवान महावीर के मुख से प्रसृत नहीं हुई है या गणधरों की भाषा में प्रस्तुत नहीं किया गया है या ई० पू० चतुर्थ शताब्दी की प्रथम वाचना का पाठ नहीं है परंतु तीसरी और अन्तिम वाचना में पूज्य देवधिगणि (पाँचवीं छठी शताब्दी ) के समय में इसे अन्तिम रूप दिया गया हो या उन्होंने ही श्रुत की रचना की हो तब तो हमारे लिए चर्चा का कोई प्रश्न ही नहीं बनता है और जो भी पाठ जिसको अपनाना है वह अपना सकता है। १-२ [ तृतीयाबहुबचन की विभक्ति 'हि' के वदले 'हिं' भी परवर्ती है। सासते में से त का लोप भी अयोग्य लगता है। इन दोनों को अभी तो सामग्री (पाठान्तरों) के अभाव में प्रमाणित नहीं किया जा सकता; परंतु आशा है कि ऐसे पाठान्तर भी शोध करने पर मिल सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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