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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१
(भाषा को न समझने से भ्रान्ति के कारण) कृत्रिम परिभाषा देकर उसे तोड़ मरोड़ कर समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे तुरन्त मध्यवर्ती द का लोप और य श्रुति से द का य हो जाता है । यह तो मात्र = माय और पात्र =पाय जैसा परिवर्तन है और आत्म = आत्त --आत= आय जैसा विकास है। अतः क्षेत्रज्ञ में च के स्थान पर 'द' लाने की जरूरत नहीं थी। प्राचीन प्राकृत भाषा में त्र का त्त ही हआ था न कि 'त' या 'य'। अशोक के पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में ज्ञ का न है न कि 'पण'। सामान्यतः न्न का ण्ण ई०स० के बाद में प्रचलन में आया है और वह भी दक्षिण और उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से न कि पूर्वी क्षेत्र से । न = षण पूर्णतः महाराष्ट्री प्राकृत की ध्वनि है न कि पालि, मागधी, पैशाची या शौरसेनी की। अतः अर्धमागधी में न्न == ण्ण का प्रयोग करना जबरदस्ती से या जाने अनजाने उसे महाराष्ट्री भाषा में बदलने के समान है और क्या यह मूल अर्धमागधी भाषा के लक्षणों की अनभिज्ञता के कारण ही ऐसा नहीं हो रहा है ? शुब्रिग महोदय ने ज्ञ के लिए सर्वत्र न्न ही अपनाया है परंतु त्र के स्थान पर य को स्थान देकर तथा त्त का त्याग करके उन्होंने अनुपयूक्त पाठ अपनाया है। वे स्वयं भी खेदज्ञ शब्द से प्रभावित हुए हों ऐसा लगे बिना नहीं रहता। उन्होंने नित्य के स्थान पर नितिय अपनाया है वह प्राचीन भी है और बिलकुल उचित भी है, निइय और णिइय तो बिलकुल कृत्रिम है और मात्र मध्यवर्ती त के लोप का अक्षरक्षः पालन किया गया हो ऐसा लगता है। पिशल के व्याकरण में न तो नितिय शब्द मिलता है और न ही णिइय, निइय । प्राचीन शिलालेखों में और प्राचीन प्राकृत में पहले स्वरभक्ति का प्रचलन हुआ जैसे--क्य = किय, त्य = तिय, व्य-विय, इत्यादि और बाद में ऐसे संयुक्त व्यंजनों में समीकरण आया है। समेच्च के बदले में समिच्च अर्थात ए के स्थान पर इ का प्रयोग (संयुक्त व्यंजनों के पहले ) भी न तो सर्वत्र मिलेगा और न ही प्राचीनता का लक्षण है । क =ग के प्रयोगों से अर्धमागधी साहित्य भरा पड़ा है । क का ग भी पूर्वी क्षेत्र का (अशोक के शिलालेख) लक्षण है। क का लोप महाराष्ट्री का सामान्य लक्षण है और यह लोप की प्रवृत्ति काफी परवर्ती है। पवेदित में से द और त का लोप भी परवर्ती प्राकृत का लक्षण है। शौरसेनी और मागधी में तो
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