Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 16
________________ प्रकृतियों में इसका अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्व के होने पर उसका बन्ध नहीं पाया जाता। असंयम प्रत्यय भी नहीं है, क्योंकि संयतों के भी उसका बन्ध देखा जाता है। कषाय सामान्य भी नहीं है, क्योंकि कषाय होने पर भी उसका बन्ध व्युच्छेद देखा जाता है अथवा कषाय के रहते हुए भी उसके बन्ध का प्रारम्भ नहीं पाया जाता। कषाय की मन्दता भी कारण नहीं है क्योंकि तीवकषाय वाले नारकियों के भी इसका बन्ध देखा जाता है। तीवकषाय भी बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि सर्वार्थसिद्धि के देव और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के भी बन्ध देखा जाता है । सम्यक्त्व भी बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि जीवों के तीर्थंकर कर्म का बन्ध नहीं पाया जाता और मात्र दर्शन की विशुद्धता भी कारण नहीं है क्योंकि दर्शनमोहका क्षय कर चुकने वाले सभी जीवों के उसका बन्ध नहीं पाया जाता, इसलिये तीर्थकर-गोत्र के बन्ध का कारण कहना ही चाहिए। इस प्रकार उपयोगिता प्रदर्शित कर 'तत्थ इमेहिं सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणाम गोदं कम्मं बंधति ॥४०॥ इस सूत्र में कहा है कि आगे कहे जाने वाले सोलह कारणों के द्वारा जीव तीर्थंकर-नाम-गोत्र को बांधते हैं । इस तीर्थंकर नाम गोत्र का प्रारम्भ मात्र मनुष्यगति में ही संभव होता है। क्योंकि केवल ज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य का सन्निधान मनुष्य गति में ही संभव होता है, अन्यगतियों में नहीं । इसी सूत्र की टीका में वीरसेन स्वामी ने कहा है कि पर्यायाथिक नय का अवलम्बन करने पर एक ही कारण होता है अथवा दो भी कारण होते हैं इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिए कि सोलह ही कारण होते हैं। अग्रिम सूत्र में इन सोलह कारणों का नामोल्लेख किया गया है - __ 'दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलव पडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधायामे तथा तवे साहूणं पासुअ परिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वज्जावच्चजोगजुतदाए अरहंत भत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति ।' १ दर्शनविशुद्धता २ विनयसंपन्नता ३ शीलव्रतेष्वनतीचार ४ आवश्यकापरिहीणता ५ क्षणलवप्रतिबोधनता ६ लब्धिसंवेगसंपन्नता ७ यथास्थामयथाशक्ति तप ८ साधूनां प्रासुक परित्यागता ६ साधूनां समाधि संघारणा १० साधूनां वैयावृत्य योग युक्तता ११ अरहन्त भक्ति १२ बहुश्रु तभक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ प्रवचन वत्सलता १५ प्रवचन प्रभावना और अभिक्षण अभिक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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