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सत्य संगीत
मातपिताको पुत्र केदखाना देता था । बहिन-बेटियो का सुहाग भी हर लेता था ॥३॥
लवल का या राज्य नीति का नाम नहीं था। ये पेटाएं लोग, सत्यसे काम नहीं था। सभ्यजनों मे भी न मान महिला पाती थी।
जगह जगह वीभन्स वासना दिखलाती थी ॥ ४ ॥ ऐसा कोई न या समस्या जो सुलझाता । दिग्विमूह मानव समाज को पथ बतलाता ॥ न्यय और सत्य की विजय को जान लडाता । पीडित की सुनकर पुकार जो दोडा आता ॥५॥
लाखों ऑखे वाट देखती थी तब तेरी । उनको होती थी असह्य क्षण क्षणकी ढेरी ॥ अगणित आहे रही वाप्यमय वायु बनाती ।
कर करुणा सचार हृदय तेरा पिघलाती ॥६॥ तू अदृश्य था किन्तु बुलाते ये तुझको सब । कहता था ससार 'अरे आवेगा त कव' ? 'कत्र जीवन की कला जगत् को सिखलावेंगा ? मन्य अहिंमाका पुनीत पथ दिखलावेगा ॥७॥
आग्विर आया, ईई भयकर वत्र गर्जना । दहल उटे अन्याय. पाप की हुई तर्जना ॥ दुखी जगत् को देख सभीको गले लगाया । आखिर तु रो पना, हृदय नेग भर आया ॥ ८॥
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