________________
८८]
सत्य-संगीत
कटकमय है मार्ग सब तरफ़, वापद हैं गुर्राते । जिनके लिये मर रहा हूँ मैं वे ही हैं ठुकराते ॥
मन में धैर्य कहाँ तक लाऊँ? अपनी त्रिपटा किसे सुनाऊँ ॥
लुटादिया सर्वम्व, बनाई जगके लिये भिखारी। अब तो लक्ष्मी को तलाक देने की आई वारी ॥
किसको अपनी दशा दिखाऊँ ? अपनी विपदा किले मुनाऊँ ॥
(७) भीतर चान्याएँ जलती है. उनमें ही बसना है । उनकना है अश्रु वहीं पर, फिर मुख पर हँसना है ॥
अपनी हंसी किसे समझाऊँ ? अपनी विपदा किंत मुनाऊँ ॥
विता ! आओ ! आओ !! करलो अपने करने की । अब तो एक मारना ही है, हम हैन कर मरने की ।।
मकर विश्वग्रूप हो जाऊँ। अनि विदा दिने मुना।।
-
-
.
"