Book Title: Satya Sangit
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 138
________________ १२६ ] सत्य सगांत marn . जगदम्ब जगढम्ब जगत है निरालम्ब अवलम्बन देने को आजा । हिंसा से जगत तबाह हुआ जगकी सुध लेने को आजा | रहने दे निर्गुण रूप प्रेम की मुरति माँ बनकर आजा । रोते बच्चे खिलखिला उठे ऐसा प्रसन्न मन कर आजा ॥१॥ भर रहा जगत में द्वेषदम्भ सब जगह क्रूरता छाई है। छल छोंने मन भ्रः किये इसलिये गदगी आई है ।। हैं तडप रहे तेरे बच्चे दुखों से पिंड छुडा दे तू । भनभना रही हैं विपदाएँ अञ्चल से तनिक उडादे तू ॥१॥ वरसादे मन पर प्रेम सुधा नन्दन सा उपवन बन जावे | मत्र रग विरगे फूल खिलें स्वर्गीय दृश्य भूपर आवे ।। सब रगो का आकृतियों का जगमे परिपूर्ण समन्वय हो । हवान भगे शैतान भगे सबका मन मानवतामय हो ॥३॥ तेरी गोदी का सिंहासन मिल जावे सबको मनभाया । सन्तप्त जगत पर छाजाये तेरे ही अञ्चल की छाया । वात्सल्यमयी मुरति तेरी दुनिया की आशा हो बल हो।। सारा धन वैभव चञ्चल हो पर तेरी मूर्ति अचचल हो ॥ ४ ॥ तेरा अनहद सगीत उठे ब्रह्माड चराचर छाजावे ।। उस तान तान पर सारा जग सर्वस्व छोड़ नचता आवे । वन वैभव बल अधिकार कला तेरा अपमान न कर पाने । श्री शक्ति शारदाओं का दल रागों में राग मिलाजावे ॥५॥

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