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सत्य-संगीत
जीवन्त जीवन का कौन ठिकाना । जो अपना कर्तव्य उसी पर, न्यौछावर होजाना ।
जीवनका कौन ठिकाना ॥१॥ बनो आलसी तो जाना है, कर्म करो तो जाना। फिर क्यों स्वार्थी और आलसी बनकर मृतक कहाना ।
जीवनका कौन ठिकाना ॥२॥ यौवन पाया वन जन पाया. सभी वथा है पाना । अगर नहीं दुनियाके हितमें, अपना हित पहचाना ।।
जीवनका कोन ठिकाना ॥३॥ क्या लाये थे क्या लेजाना, खाली आना जाना। यहीं रहा सब यहीं रहेगा. क्यों फिर मोह लगाना ।।
जीवनका कौन ठिकाना ॥४॥ आवेगा जब काल तभी यह, सब कुछ है छिनजाना । क्यों न जगत के सेवक बनकर, त्यागवीर कहलाना ॥
जीवन का कोन ठिकाना ॥५॥ अभिमानी बन गजपर बैठो. सीखो जोर जताना । याद रहे पर एक दिस है, मिट्टी में मिल जाना ॥
जीवनका कौन ठिकाना ॥ ६॥ खेलो खेल खिलाडी बनकर छोडो त्रैर भजाना। अपना अपना खेल खेलकर हतकर छोड़ो बाना ।
जीवनका कौन ठिकाना ॥७॥