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मनुप्यता
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मत का घमड छोडो, ___ यह जाति-भेद तोटो,
मह प्रेम से न मोडो,
___ यदि दुःख-सिन्धु तरना ॥ पाई. ॥ ६ ॥ दुईद्धि है सताती, श्रद्धान्ध है बनाती, बनना न पक्षपाती,
समभाव प्रेम करना । पाई ॥ ७॥ बन कर्ययोग-धारी, कर्मण्यता-प्रचारी, संसार-दुःखहारी,
रोते हुए न मरना ॥ पाई मनुष्यता है कर्तव्य निन्य करना ॥ ८ ॥
उद्धारकात्मा से तुम कहते थे हम आवगे पर भूलगये क्या अपनी बात ।
क्या विश्वनियम तुमने भी पकडा दीनोपर करते आघात ॥ हम दीन हुए, जग हँसता है, पर तुम क्यों बन बैठे नादान ? ___ या किसी तरह से रिसागये हो मनमें रक्खा है अभिमान || अथवा पिछले पापाका अवतक हुआ नहीं पूरा परिशोध ।
या किया हमारी वर्तमान करतोंने ही पथका रोध । तुम जिस बन्धन में पड़े हुए हो तोडो उस बन्धनका जाल ।
मत ढील करो; क्या नहीं जानते हम दीनोंके हाल हवाल ||