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________________ मनुप्यता [११५ मत का घमड छोडो, ___ यह जाति-भेद तोटो, मह प्रेम से न मोडो, ___ यदि दुःख-सिन्धु तरना ॥ पाई. ॥ ६ ॥ दुईद्धि है सताती, श्रद्धान्ध है बनाती, बनना न पक्षपाती, समभाव प्रेम करना । पाई ॥ ७॥ बन कर्ययोग-धारी, कर्मण्यता-प्रचारी, संसार-दुःखहारी, रोते हुए न मरना ॥ पाई मनुष्यता है कर्तव्य निन्य करना ॥ ८ ॥ उद्धारकात्मा से तुम कहते थे हम आवगे पर भूलगये क्या अपनी बात । क्या विश्वनियम तुमने भी पकडा दीनोपर करते आघात ॥ हम दीन हुए, जग हँसता है, पर तुम क्यों बन बैठे नादान ? ___ या किसी तरह से रिसागये हो मनमें रक्खा है अभिमान || अथवा पिछले पापाका अवतक हुआ नहीं पूरा परिशोध । या किया हमारी वर्तमान करतोंने ही पथका रोध । तुम जिस बन्धन में पड़े हुए हो तोडो उस बन्धनका जाल । मत ढील करो; क्या नहीं जानते हम दीनोंके हाल हवाल ||
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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