Book Title: Satya Sangit
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 117
________________ माया माया जगकी कैसी है यह माया | जिसने जीवन भर भरमाया || ( १ ) निशिदिन जाप जपा ईश्वरका पर न हृदय में आया । धोखा देने चला उस पर मैने धोखा खाया || जगकी कैसी है यह माया ॥ ( २ ) था जीवनका वेट मगर में खेल न दिखला पाया । खेल ग्वेने गया मगर मैं रो रो कर भग आया । जगकी कैसी है यह माया ॥ ( ३ ) सदा हृदय में गृजा 'मैं मे' 'मैं मैं' माया ओझल हुई मिठा [ १०५ काम न आया । सब अपना और पराया ॥ जगकी कैसी है यह माया Il ( ४ ) मुट्टीमें लेने को दौड़ा दिखती थी जो छाया । पर यह छाया हाथ न आई मूरख ही कहलाया || जगकी कैसी है यह माया ॥ (५) माया को सत्येश्वर समझा सत्येश्वर इसीलिये कुछ हाथ न आया जीवन व्यर्थ जगकी कैसी हैं यह को माया । गमाया ॥ माया ॥

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