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माया
माया
जगकी कैसी है यह माया | जिसने जीवन भर भरमाया ||
( १ )
निशिदिन जाप जपा ईश्वरका पर न हृदय में आया । धोखा देने चला उस पर मैने धोखा खाया || जगकी कैसी है यह माया ॥ ( २ )
था जीवनका वेट मगर में खेल न दिखला पाया । खेल ग्वेने गया मगर मैं रो रो कर भग आया । जगकी कैसी है यह माया ॥ ( ३ )
सदा हृदय में गृजा 'मैं मे' 'मैं मैं' माया ओझल हुई मिठा
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काम न आया ।
सब अपना और पराया ॥ जगकी कैसी है यह माया Il ( ४ ) मुट्टीमें लेने को दौड़ा दिखती थी जो छाया । पर यह छाया हाथ न आई मूरख ही कहलाया || जगकी कैसी है यह माया ॥
(५)
माया को सत्येश्वर समझा सत्येश्वर इसीलिये कुछ हाथ न आया जीवन व्यर्थ
जगकी कैसी हैं यह
को माया ।
गमाया ॥ माया ॥