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महात्मा कृष्ण
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मिला तुझे भगवान सत्यका धाम दु खहर ।
मन ही मन भगवती अहिंसाको प्रणाम कर ॥ मॉगी तूने छोड, स्वार्थमय सारी ममता । दुखी जगत् के दुःख दूर करने की क्षमता ॥ ९ ॥ दिव्य नेत्र खुल गये दुःखका कारण जाना ।
जीने मरने का रहस्य तूने पहिचाना ॥
दुष्ट - नाश-सकल्प हृदय में तूने ठाना । तूने निश्चित किया सत्य-सन्देश सुनाना ॥ १० ॥
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कर्मयोग सगीत सुनाया तूने ज्यो ही । सकल मानसिक रोग निकलकर भागे त्यों ही ॥ किंकर्तव्यविमूढता न तव रहने पाई । अकर्मण्य भी कर्मपाठ सीखे सुखदाई ॥११॥
सर्व-धर्म-समभाव हृदय में धरके तूने । सब धर्मो का सत्य समन्वय करके तूने ॥ मानव मनके अहकारको हरके तूने । मनुष्यता का पाठ दिया जी भरके तूने ॥ १२॥ यद्यपि जगको सदा सत्य-सन्देश सुनाया ।
पर दुष्टों के लिये सुदर्शन चक्र चलाया ॥ दूतसूत ऋषि विविध रूप अपना बतलाया । जहाँ जरूरत पड़ी वहाँ तू दौडा आया || १३||
तू छलियोको छली, योगियोंको योगी था । था क्रूरोंको क्रूर, भोगियोको भोगी था ।