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सत्य-संगीत
मुहम्मद
था अनत्र बना वाना तेरा, तलवार इधर थी, उवर दया । जल-लहरी की मालाएँ थीं, जालाएँ थी, था रूप नया ॥ दुर्जन-दल भजक था पर न , जगका अनुरञ्जक प्रेम-सना। भीतर से था सच्चा फकीर, ऊपर से था पर शाह बना।
(२) था माल खजाना तेरा पर, कोडी कोडी का त्याग किया । मालिक था, गुरु था, पर तून, मेवकता का सन्मान लिया ॥ विपदाओं के अगणित कंटक थे, तने उनको पीस दिया । तू मौत हथेली पर लेकर, भली दुनियाक लिय जिया।
(३) नर-रत्न मुहम्मद, सीखी थी, तूने मरने की अजब कला । . तु बाइज था, पैगम्बर था, तूने दुनिया का किया भला ॥
अभिमान छुडाया था तूने, सबके मजहब को भला कहा ।
तू सर्वधर्मसमभाव लिये, भगवान सत्यका दूत रहा ।।
दिखलादे त अपनी झाँकी, दुनिया में कुछ ईमान रहे । सप्रेम रहे मानव-मन में, भाईचारे का ध्यान रहे ॥ मजहब के झगडे दूर हटें, मजहब में सच्ची जान रहे।
सब प्रेम-पुजारी बनें अहिंसक, जिससे तेरी शान रहे।