Book Title: Saptabhangi Tarangini
Author(s): Vimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .." भङ्गास्सत्त्वादयस्सप्त संशयास्सप्त तद्गताः। जिज्ञासास्सप्त सप्त स्युः प्रश्नास्सप्तोत्तराण्यपि ॥" - 'स्यादस्ति घट: कथंचित् घट है इत्यादि वाक्यमें सत्त्व आदि सप्तभंग इस हेतुसे हैं कि, उनमें स्थित संशय भी सप्त हैं और सप्त संशय इसलिये हैं कि, जिज्ञासाओं के भेद भी सप्त ही हैं और सप्त जिज्ञासाओंके भेदसे ही सप्त प्रकारके उत्तर भी होते हैं. _ नन्विदं सर्व तदोपपद्यते, यदि धर्माणां सप्तविधत्वमेवेति सिद्धं स्यात् । तदेव न सम्भवति । प्रथम द्वितीयधर्मवत्प्रथमतृतीयादि धर्माणां क्रमाक्रमार्पितानां धर्मान्तरत्वसिद्धेस्सप्तविधधर्मनियमाभावात् ; इतिचेन्न । शङ्का-यह सब तब ही युक्त हो सक्ता है कि जब, धर्मोंके सात ही भेद सिद्ध हों परन्तु यही संभव नहीं हैं. क्योंकि प्रथम द्वितीय धर्मके सदृश क्रम तथा अक्रमसे अर्पित प्रथम तृतीय आदि धर्मोंसे सप्त धर्मसे भिन्न अन्य धर्मोंकी सिद्धि होनेसे सात ही प्रकारके धर्म हैं यह नियम नहीं हो सक्ता, तात्पर्य यह है कि जैसे, 'स्यादस्ति' यहां प्रथम धर्म सत्त्व और 'स्यान्नास्ति' यहां द्वितीय धर्म असत्त्व इन दोनोंको क्रमसे लगानेपर 'स्यादस्तिनास्ति' कथंचित् सत्त्व कथंचित् असत्त्व यह तृतीय धर्म हो जाता है ऐसे ही प्रथम तृतीय आदि धर्मोंको क्रम वा अक्रमसे लगानेसे जैसे 'स्यादस्ति' तथा 'स्यादस्तिनास्ति' इन प्रथम तृतीयको क्रमसे योजन करनेसे 'स्यादस्तिस्यादस्तिनास्ति' कथंचित् सत्त्व कथंचित् सत्त्वासत्त्व यह एक सत्त्वधर्मसे भिन्न अन्य धर्म हो गया. ऐसे ही तृतीय चतुर्थके योजनसे भी अन्य धर्मकी संभावना है तो धर्मोंके सात ही भेद हैं, यह नियम असङ्गत है । ऐसी शङ्का यदि करो तो उसका उत्तर यह है । क्रमाक्रमार्पितयोः प्रथमतृतीयधर्मयोर्धर्मान्तरत्वेनाप्रतीतेः । स्यादस्तिघट इत्यादौ घटत्वावच्छिन्नसत्त्वद्वयस्यासम्भवात् , मृण्मयत्वाद्यवच्छिन्नसत्त्वान्तरस्य सम्भवेऽपि दारुमयत्वाद्यवच्छिन्नस्यापरस्यासत्त्वस्यापि सम्भवेनापरधर्मसप्तकसिद्धेस्सप्तभंग्यन्तरस्यैव सम्भवात् । एतेनद्वितीय तृतीय धर्मयोः क्रमाक्रमार्पितयोर्धर्मान्तरत्वमिति निरस्तम् ;-एकरूपावच्छिन्न नास्तित्वद्वयस्यासम्भवात् । __ क्योंकि,-क्रम वा अक्रमसे अर्पित प्रथम तृतीय धर्मोकी योजनासे धर्मान्तरकी प्रतीति लोकमें नही है। क्योकि 'स्यादस्ति घटः' इत्यादि वाक्यमें घंटत्वावच्छिन्न घटके सत्त्वद्वय असंभव है । मृत्तिकामयत्वादि अवच्छिन्न घटके अन्य सत्ताका संभव होनेपर भी उसी समय दारुमयत्व आदि अन्य घटकी असत्ताका भी संभव होनेसे अन्य उसी प्रकारके सात धर्म सिद्ध हो जायगे. इस हेतुसे अन्य सप्तभङ्गी ही सिद्ध होनेका संभव है न कि सप्त १ जाननेकी इच्छाओंके. २ सात. ३ भङ्ग आदिका सप्त भेद कथन. ४ धोंके सप्त भेद. ५ कथञ्चित् घट है. ६ घटको अन्यसे पृथक् करनेवाले घटत्व धर्मसहित. ७ एक घट विषयमें दो सत्ताका. ८ मिठीके. ९ काष्ठ आदि रचित. For Private And Personal Use Only

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