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ननु ‘सत्त्वासत्त्वे ' इति द्वन्द्वसमासपदं सत्त्वासत्त्वयोः प्राधान्येन बोधकम् । “उभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः” इति वचनात्, एवं च कथमवाच्यत्वं सदसत्त्वात्मकवस्तुनः ? इतिचेन्न-द्वन्द्वस्यापि क्रमेणैवार्थद्वयप्रत्यायनसमर्थत्वेन गुणप्रधानभावस्य तत्रापि सत्त्वात् । अत एव-"अभ्यहितं पूर्वम्” इति प्रधानभूतार्थस्य पूर्वनिपातानुशासनं संगच्छते । अस्तु वा द्वन्द्व उभयस्यापि प्राधान्येन बोधः । अथापि प्रधानभावेनास्तित्वनास्तित्वोभयावच्छिन्नस्य धर्मिणः प्रतिपादकशब्दाभावादवाच्यत्वमक्षतम् ।
प्रश्नः--"सत्त्वासत्त्वे" यह द्वन्द्व समाससे सिद्ध पद प्रधानतासे सत्त्व तथा असत्त्वरूप अर्थका बोधक है। क्योंकि द्वन्द्व समासमें दोनों पदै अथवा अधिक पद प्रधान होते हैं ऐसा वचन है इस प्रकारसे सत्त्व तथा असत्त्व धर्म सहित वस्तुकी अवाच्यता कैसे होसकती है अर्थात् जब व्याकरण शास्त्रसे द्वन्द्व समास सिद्ध पद दो अर्थोंको प्रधानसे कह सकता है तब ‘स्यात् अवक्तव्य एव' यह चतुर्थ भङ्ग नहीं बन सकता? ऐसी शंका नहीं कर सकते क्योंकि द्वन्द्व समासको भी क्रमसे ही दो अथवा दोसे अधिक अर्थोके बोध करानेमें सामर्थ्य है, मुख्यता तथा गौणताका भाव द्वन्द्व समासमें भी विवक्षित है। "इसी हेतुसे "अभ्यर्हितम् पूर्वम्" पूजित अथवा श्रेष्ठ वा प्रधान जो होता है वह द्वन्द्व समासमें सबसे पूर्व रक्खा जाता है इस रीतिसे ही प्रधानभूत जो अर्थ है उसके पूर्व नियत करनेकी आज्ञा शास्त्रकारकी संगत होती है, यदि किसीकी एककी इस समासमें प्रधानता नहीं होती तो प्रेधानके पूर्व नियम रखनेका नियम व्याकरणमें कैसे किया जाता, अथवा द्वन्द समासमें उभय पदार्थकी प्रधानताहीसे बोध होता है, ऐसा माननेसे भी हमारी कोई हानि नहीं है । क्योंकि प्रधानतासे अस्तित्व तथा नास्तित्व इन उभय धर्म सहित पदार्थका प्रतिपादक धर्मी कोई शब्द नहीं है इसलिये अवाच्यस्वरूप पूर्ण रीतिसे है अर्थात् 'स्यात् अवक्तव्यः' इस हमारे चतुर्थ भङ्गकी सिद्धिमें कोई क्षति नहीं है,
न च- 'सदसत्त्वविशिष्टं वस्तु' इत्यनेन द्वन्द्वगतितत्पुरुषेण सदसत्त्वविशिष्टपदेन तदुभयधर्मावच्छिन्नस्य वस्तुनो बोधसम्भवादिति वाच्यं, तत्र सदसत्त्ववैशिष्टयस्यैव प्रधानतया तयोरप्रधानत्वात् । “उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः” इति वचनात् । तस्मात्सकलवाचकरहितत्वात्स्यादवक्तव्यो घट इति सिद्धम् ॥
सत्त्व असत्त्व विशिष्ट वस्तु, द्वन्द्व समासको गर्भमें रखनेवाले तत्पुरुष समाससे सदसत्त्व
१ सत्त्व और असत्त्व, 'सत्त्वं च असत्त्वं च' इस प्रकार द्वन्द्व समास करनेसे 'सत्त्वासत्त्वे' यह पद बनता है. २ उभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः, इस वाक्यमें उभय पद अनेकका भी उपलक्षण है क्योंकि द्वन्द्व समास अनेक पदोंका भी होता है. ३ जहां दो ही पदका द्वन्द्व हो वहां दोको प्रधानता, अनेकमें सबको प्रधानता रहती है. ४ यह बचन (अल्पाच् तरम्) २।२।३४। पाणिनीयाष्टके अल्पाच्वाले शब्दका पूर्व निपात होता है इसका वार्तिक है अभ्यहितके पूर्व निपातका उदाहरण तापसपर्वती है. ५ अभ्यर्हितके अर्थ प्रधान वा मुख्य मानके यह कथन किया है. ६ अस्तिल नास्तित्व दोनों. ७ कहनेवाला, वाचक. ८ सल असत्व दोनों धर्म सहित पदार्थ..
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