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वाले वक्रकोटर तथा पक्षियोंके थे आदि विशेषोंको तथा पुरुषनिष्ठ वस्त्रधारण शिखाबन्धन तथा हस्त पाद आदि विशेषोंको न देखनेवाले मनुष्यको स्थाणु पुरुषके विशेषोंके स्मरणसे यह स्थाणु है वा पुरुष है ऐसा संशयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है । और अनेकान्तवादमें तो विशेष धर्मोंकी उपलब्धि निर्बाध ही है, क्योंकि स्वरूप पररूप विशेषोंकी उपलब्धि प्रत्येक पदार्थमें है । इसलिये विशेषकी उपलब्धिसे अनेकान्तवाद संशयका हेतु नहीं है।
अथैवमपि संशयो दुर्वारः, तथा हि-घटादावस्तित्वादिधर्माणां साधकाः प्रतिनियता हेतवस्सन्ति वा न वा ? न चेद्विप्रतिपन्नं प्रति प्रतिपादनासम्भवः । सन्ति चेदेकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धास्तित्वनास्तित्वादिसाधकहेतुसद्भावात्संशयो दुर्वारः? इति चेन्न; अस्तित्वनास्तित्वयोरवच्छेदकभेदेनाय॑माणयोर्विरोधाभावात् । यथा-एकस्यैव देवदत्तस्यैकापेक्षया पितृत्वमन्यापेक्षया पुत्रत्वं च परस्परमविरुद्धम् , यथा चान्वयव्यतिरेकिधूमादिहेतौ सपक्षे महानसादौ सत्त्वं विपक्षे महाहदादावसत्त्वं च परस्परमविरुद्धम् । तथास्तित्वनास्तित्वयोरपि । तयोर्विरोधश्चानुपदमेव स्पष्टं परिहरिष्यते ॥
शङ्का-ऐसा मानने पर भी संशयका निवारण दुःसाध्य है । जैसे घट आदि पदार्थों में आस्तित्व आदि धर्मोंके साधक हेतु प्रतिनियत हैं वा नहीं। यदि अस्तित्व आदिके साधक हेतु प्रतिनियत नहीं हैं तो यह विरुद्ध है, क्योंकि अस्तित्व आदि धर्मोके प्रतिपादक हेतु नहीं हैं तो पदार्थोंका प्रतिपादन ही असंभव है । और यदि प्रतिपादक हेतु हैं तो एक वस्तुमें परस्पर विरुद्ध अस्तित्व तथा नास्तित्वके साधक हेतुके सद्भावसे संशय दुर्निवारणीय है ? यह शङ्का अयुक्त है, क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वके अवच्छेदक भेदसे योजना करनेसे विरोधका अभाव है। जैसे एक ही देवदत्तमें एक (पुत्र) की अपेक्षासे पितृत्व और अन्य निज पिताकी अपेक्षासे पुत्रत्व भी परस्पर अविरुद्ध है, और जैसे -अन्वयव्यतिरेकी धूमोदि हेतुका समक्षमहान्स आदिमें सत्त्व और विपक्ष महाह्रदादिमें असत्त्व भी परस्पर अविरुद्ध है यही दशा अर्थात अपेक्षासे सत्त्व तथा असत्त्व अस्तित्व तथा नास्तित्वका भी एक ही वस्तुमें अविरुद्ध है। और उनके विरोधका परिहार आगे चलके शीघ्र ही करेंगे
ननु-अनेकान्तवादे विरोधादयोऽष्टदोषास्सम्भवन्ति । तथा हि-एकार्थे विधिप्रतिषेधरूपावस्तित्वनास्तित्वधौं न सम्भवतः, शीतोष्णयोरिव भावाभावयोः परस्पर विरोधात् । अस्तित्व हि भावरूपं, विधिमुखप्रत्ययविषयत्वात् । नास्तित्वं च प्रतिषेधरूपं. नअल्लिखितप्रतीतिविषयत्वात् । यत्रास्तित्वं तत्र नास्तित्वस्य विरोधः, यत्र च नास्तित्वं तत्रास्तित्वस्य विराधः, हात
१ अन्यसे पृथक् करनेवाले स्वरूप पररूपादि धर्म. २ जिस हेतुका सपक्ष विपक्षमें सत्त्व असत्त्व दाना पाया जाय उसको अन्वयव्यतिरेकी कहते हैं पक्षके समानधर्मवाला धर्मी सपक्ष कहा जाता है इस विरुद्ध विपक्ष कहलाता है. .
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