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जैसे हेतु पक्षधर्मता आदिकी विवक्षासे अनेक है, और हेतुत्वरूपसे एक भी है, इस रीतिसे सत्त्व आदिकी विवक्षासे सब एक हैं, और जीव द्रव्य आदि भेदसे अनेक हैं ऐसा पूर्वोक्त कारिकाका अर्थ है । इस अर्थका विस्तार देवागम अलङ्कारमें है इसलिये यहां अधिक नहीं कहते हैं। __ अत्राप्यनेकपदस्यैकभिन्नार्थकतया एकस्मिन् घटादावेकभेदः कथं वर्तत इति चोये, पर्यावच्छेदेन वर्तते-यथा वृक्षे मूलावच्छेदेन संयोगिभेद इति, पूर्ववत्परिहारो बोध्यः ।
यहां भी अनेक पदकी एकसे भिन्नार्थकता होनेसे एक घट आदि पदार्थमें एकका भेद कैसे रह सकता है, ऐसा कुतर्क करने पर पर्याय अवच्छिन्नरूपसे भेद है ऐसा समाधान देना चाहिये । जैसे वृक्षमें मूलदेशमें संयोगिभेद है और शाखा आदि देशमें संयोगी भी । इस प्रकार पूर्वोक्त रीतिसे परिहार करना चाहिये ।। __ एवमयं स्याज्जीवः स्यादजीव इति मूलभंगद्वयम् । तत्रोपयोगात्मना जीवः, प्रमेयत्वाद्यात्मनाऽजीव इति तदर्थः।
इस प्रकार यह कथंचित् जीव है, और कथंचित् अजीव भी है ये मूल दो भङ्ग हैं । वहां पर उपयोगरूपसे तो जीव है और प्रमेयत्व आदिरूपसे अजीव भी है यह मूल दो भंगोंका अर्थ है।
तदुक्तं भट्टाकलंकदेवैःयही विषय अकलङ्कदेवने ऐसा कहा है
“ प्रमेयत्वादिभिर्धमैरचिदात्मा चिदात्मकः ।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माचेतनाऽचेतनात्मकः ॥” इति । "अमेयत्व आदि धर्मोसे जीव अचिद्रूप है, तथा ज्ञान दर्शन उपयोगसे चिद्रूप भी है, इस कारणसे जीव चेतन तथा अचेतनरूप भी है" ।
अजीवत्वं च प्रकृतेऽजीववृत्तिप्रमेयत्वादिधर्मवत्त्वम् , जीवत्वं च ज्ञानदर्शनादिमत्त्वमिति द्रष्टव्यम् ।
इस प्रसङ्गमें अजीव वृत्ति प्रमेयत्त्व आदि धर्मवत्ता तो अजीवत्व है, और ज्ञान दर्शन आदिमत्त्व जीवत्व है, ऐसा समझना चाहिये ।
नन्वयमनेकान्तवादश्छलमात्रमेव, तदेवास्ति तदेव नास्ति, तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति प्ररूपणारूपत्वादनेकान्तवादस्य । इति चेन्न;-छललक्षणाभावात् । अभिप्रायान्तरेण प्रयुक्तस्य शब्दस्यार्थान्तरं परिकल्प्य दूषणाभिधानं छलमिति छलसामान्यलक्षणम् । यथा नवकम्बलोयं देवदत्त इति वाक्यस्य नूतनाभिप्रायेण प्रयुक्तस्यार्थान्तरमाशंक्य कश्चिद्दषयति, नास्य नवकम्बलास्सन्ति दरिद्रत्वात् ; नह्यस्य द्विकम्बलवत्त्वमपि सम्भाव्यते; कुतो नवेति । प्रकृते
१ जहां एकत्व प्रतियोगितावच्छेदक है. वहां एकका भेद नहीं रह सक्ता। भेदकी ब्याप्यवृत्तिता मानकर प्रश्न है.
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