Book Title: Saptabhangi Tarangini
Author(s): Vimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यावृत्ति कभी समाप्त न होगी । इससे यह सिद्ध होगया कि वाक्यमें अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अवधारण वाचक एव शब्दका प्रयोग करना उचित है ।। अयं चैवकारस्त्रिविधः, अयोगव्यवच्छेदबोधकः अन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति । यह अवधारणवाचक एवकार तीन प्रकारका है. एक अयोगव्यवच्छेदबोधक अर्थात् सम्बन्धके न होनेका व्यावर्त्तक, दूसरा अन्ययोगव्यवच्छेदबोधक अर्थात् दूसरेके सम्बन्धकी निवृत्तिका बोधक, और तीसरा अत्यन्त असम्बन्धकी व्यावृत्तिका बोधक ॥ तत्र विशेषणसङ्गतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा-शङ्खः पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् । प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शङ्खत्वं, शङ्खत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात्, तथा च-शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभावः, न तावत्पाण्डुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः, तदप्रतियोगित्वं पाण्डुरत्वे वर्तत इति शङ्खत्वसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगिपाण्डुरत्ववान् शङ्ख इत्युक्तस्थले बोधः । ___ इनमेंसे विशेषणके साथ अन्वित एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है. जैसे 'शङ्खः पाण्डुः एव' शंख श्वेत ही होता है । इस वाक्यमें उद्देश्यतावच्छेदकके समान अधिकरणमें रहनेवाला जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं । यह प्रथम दिखा चुके हैं कि जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है वह वस्तु उस अभावका प्रतियोगी होता है । अब यहां प्रकृत प्रसंगमें उद्देश्यताका अवच्छेदक धर्म शंखत्व है क्योंकि शंखत्व धर्मसे अवच्छिन्न जो शंख है उसको उद्देश्य करके पाण्डुत्व धर्मका विधान करते हैं तो शंखत्व जो उद्देश्यताका अवच्छेदक धर्म है उसका अधिकरण शंख है शंखरूप उद्देश्यमें उद्देश्यतावच्छेदकधर्म समवाय सम्बन्धसे रहता है तो इस रीतिसे शंखत्वके समान अधिकरणरूप शंखमें नीलत्वका अभाव है पीतत्वका अभाव है परन्तु पाण्डुत्वका अभाव नहीं है. इस हेतुसे शंखमें रहनेवाले अभावका अप्रतियोगी पाण्डुत्व हुआ न कि प्रतियोगी क्योंकि इस अभावकी प्रतियोगिता नीलत्व आदि धर्ममें रहती है और प्रतियोगितावाला ही प्रतियोगी होता है । इस रीतिसे शंखत्वके समान अधिकरणमें रहनेवाले अभावका अप्रतियोगी पाण्डुत्वधर्म होगया उस धर्म करके सहित शंख है, ऐसा पूर्वोक्त उदाहरण 'शङ्खः पाण्डुः एव' में अर्थ बोध होता है. तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व जिसमें रहता है, उसी अधिकरणमें रहनेवाला जो अभाव है उसका जो प्रतियोगी न होगा वही अयोगव्यवच्छेद होगा तो उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व शंखरूप अधिकरणमें है; उसमें पाण्डुत्वका अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पाण्डुवर्ण ही है, इसलिये उद्देश्यतावच्छेदक समानाधिकरण अभावका अप्रतियोगी १ असम्बन्ध. २ सहित. ३ रख. ४ शंखमें, For Private And Personal Use Only

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