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विषय रेसको भी स्वीकार करो, अर्थात् नेत्र इन्द्रियके ज्ञानसे रसका भी ज्ञान हो जाय तो रसैना इन्द्रियकी कल्पना ही निष्फल होगी । और जैसे नेत्र इन्द्रियके ज्ञानसे रसका ज्ञान नहीं होता ऐसे ही नेत्र इन्द्रियके ज्ञानसे रूप भी न जाना जाय तो रूपसहित घटका ज्ञानही न होगा, क्योंकि घट आदि पदार्थका नेत्र इन्द्रियसे जो ज्ञान होता है वह रूप आदि ज्ञानके साथ नियत है, अर्थात् नेत्र इन्द्रियद्वारा घटका ज्ञान उसके रूपके ज्ञानके साथ ही होता है न कि रूपके विना । __ अथवा-शब्दभेदे ध्रुवोऽर्थभेद इति घटकुटादिशब्दानामप्यर्थभेदस्समभिरूढनयार्पणात् । घटनात् घट:-कौटिल्यात्कुट इति तक्रियापरिणतिक्षण एवशब्दस्य वृत्तियुक्ता । तत्र घटनक्रियाविषयकर्तृत्वं स्वरूपम् , इतरत्पररूपम् । तत्राद्येनास्ति, इतरेण नास्ति । इत्यादिरीत्या स्वरूपपररूपभेदा ऊह्याः ॥
अथवा शब्दके भेद होनेपर अवश्य ही अर्थका भेद होता है, नाना अर्थग्राही समरूढनयकी अपेक्षासे घट कुट आदि पर्यायवाचक शब्दोंका भी अर्थ भेद माना गया है, जैसे इन्द्र, शक्र आदि शब्द एक व्यक्तिके वाचक होनेपर भी “इन्दनात् इन्द्रः शकनात् शक्रः" ऐश्वर्यसहित होनेसे इन्द्र और शत्रुओंके पराजय आदिमें समर्थ होनेसे शक्र कहे जाते हैं ऐसे ही यहांपर भी “घटनात् घटः" और "कौटिल्यात् कुटः” जलधारण आदि क्रियामें समर्थ होनेसे घट तथा कौटिल्य वक्रता आदि गुणके सम्बन्धसे कुट कहा जाता है, इस प्रकार जिस क्रियाका परिणाम जिस क्षणमें होरहा है उसी क्षणमें उस क्रियाके अनुकूल अर्थवाचक ही शब्दकी प्रवृत्ति भी योग्य है न कि अन्य शब्दकी । इसमें घटत्व अर्थात् जलादि धारणरूप जो क्रिया है उस क्रियाके विषयमें जो कर्त्तापन “कर्तृता" है वह घटका निजस्वरूप है । और उससे भिन्न परका रूप है । इनमेंसे प्रथम अर्थात् घटन क्रियाके कर्त्ततारूपसे घट है । और अन्यरूपसे नहीं । इस प्रकार पूर्वकथित रीतिके अनुसार और भी स्वरूप तथा पररूपके भेदोंकी कल्पना स्वयं करलेना।
एवं घटस्य स्वद्रव्यं मृद्रव्यं, परद्रव्यं सुवर्णादि । घटो मृदात्मनास्ति, सुवर्णाद्यात्मना नास्ति । घटस्य स्वद्रव्यात्मनेव परद्रव्यात्मनापि सत्त्वे घटो मृदात्मको न सुवर्णात्मक इति नियमो न स्यात् । तथा च द्रव्यप्रतिनियमविरोधः ।
इसी प्रकार मृत्तिकारूप द्रव्य घटका स्वद्रव्य अर्थात् निज अपना द्रव्य है, और सुवर्ण १ जो रसना (जिह्वा) इन्द्रियसे जानाजाय जैसे मीठा तीखा कटु आदि. २ जिससे मिष्ट तिक्क आम्ल तथा कटु आदि रसका खाद जानाजाता है. ३ नाना अर्थोंको कहके किसी विशेष अर्थका रूढिसे ग्रहण करानेवाला नय जैसे गो शब्द इन्द्रिय पृथिवी किरण आदि अनेक अर्थोंके कहनेपर भी पशुमें रूढ है, अथवा, शब्दके भेदमें अवश्य अर्थभेद ग्राहक. जैसे ऐश्वर्यसे इन्द्र शकनसे शक पुरके विदारणसे पुरन्दर ऐसे ही यहां भी घटन क्रियासे घट, कुटन (कौटिल्य)से कुट. ४ जो क्रिया जिस समयमें होरही वही उसका परिणाम है. ५ जो पदार्थ जिस द्रव्यसे बना है वह उसका स्वरूपवन्त द्रव्य है, जब मीका घट है तब उसका द्रव्य मट्टी है और सुवर्ण आदि परद्रव्य हैं, और जब वह सुवर्ण वा पित्तल आदिसे बना है तब सुवर्ण ही वा पित्तल आदि ही उसके खद्रव्य हैं.
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