Book Title: Saptabhangi Tarangini
Author(s): Vimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वभाव है । ऐसा स्वीकार करते हो । तब तो जीव शब्दका अर्थ और अस्ति शब्दका अर्थ एक ही हुआ यह वार्ता सिद्ध हुई तो इस रीतिसे जीव और अस्तिका सामानाधिकरण्य और विशेष्यविशेषणभाव आदि संबन्ध नहीं होगा । जैसे घट कलश इत्यादि एक अर्थके वाचक शब्दोंको सामानाधिकरण्य अथवा विशेष्यविशेषणभाव नहीं होता ऐसे ही जीव और अस्ति शब्दका भी नहीं होगा । और अस्ति तथा जीवका जब एक ही अर्थ है तब दोनोंमेंसे एक शब्दका प्रयोग न करना चाहिये । क्योंकि एकमें ही दूसरेका अर्थ गतार्थ है । और दूसरी बात यह भी है कि संपूर्ण द्रव्य तथा पर्याय सत्त्वके विषय हैं अर्थात् सब सत्त्वरूप हैं । तब सत्त्वसे अभिन्न स्वभाव जो जीव है वह भी सब द्रव्य तथा सब पर्यायरूप प्राप्त हुआ तो इस रीतिसे सब पदार्थोंको जीव रूपता प्राप्त हुई। और यदि इस दोषके निराकरणके लिये अस्ति शब्दके वाच्यार्थ सत्त्वसे भिन्न जीव शब्दका वाच्यार्थ मानते हो, तो सत्त्वसे भिन्न असत्त्वरूपता जीवकी प्राप्त हुई । क्योंकि अस्तिके वाच्यार्थ सत्त्वरूपसे भिन्न तो असत्त्व ही है और इस विषयमें ऐसा अनुमानका भी प्रयोग हो सकता है, कि जीव नहीं है । क्योंकि वह अस्ति शब्दके वाच्यार्थ सत्त्वसे भिन्न स्वरूप है जैसे शशका श्रृंग, तथा अस्तिता जैसे जीवसे भिन्न है ऐसे ही संपूर्ण पदार्थोंसे भी भिन्न होनेसे अस्तिताका कोई आश्रय न होनेके कारण अभाव वादकी प्राप्ति होगी कदाचित् यह कहो कि यद्यपि अस्तित्व जीव आदिसे भिन्न स्वभाव है तथापि वह समवाय संबन्धसे जीव आदिमें रहता है । तो यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि समवाय संबन्धका इसी ग्रंथमें अन्य स्थानमें खंडन किया गया है। यदि ऐसी शंका जीव तथा अस्ति शब्दके वाच्यार्थ विषयमें की जाय, तो इसी विषयमें उत्तर कहते हैं; कि अस्ति शब्द तथा जीवशब्दके वाच्य अर्थ दोनों द्रव्यत्वरूप अर्थादेशसे अर्थात् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे तो अभिन्नरूप हैं, और पर्यायरूप अर्थादेश अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे दोनों के वाच्यार्थ भिन्नरूप हैं, इसलिये अनेकान्त वादी जैनोंके मतमें कोई दोष नहीं है । क्योंकि द्रव्यत्वरूपसे सब पदार्थ अभिन्न और पर्यायरूपसे भिन्न हैं । यही अनुभव सिद्ध है । यह विषय आगे चलके स्पष्टरूपसे निरूपण किया जायगा । इति प्रथमद्वितीयभंगद्वयं निरूपितम् । इति द्विवेद्युपनामकाचार्योपाधिधारिठाकुरप्रसादशर्मविरचिता सप्तभङ्गतरंगिण्याः भङ्गद्वयव्याख्या समाप्ता. १ एक आधारमें रहनेवाला धर्म जैसे अस्तित्व और जीवत्व ये दोनों एक आधार जीवमें रहते हैं. २ एक प्रकारका संवन्ध जैसे सत्त्व विशेषण जीवरूप विशेष्यमें रहता है सो नहीं बन सकता क्योंकि ये दोनों एक ही हो गये. ३ अर्थको कहनेवाला. ४ सत्ता, जैसे अस्ति खभावसे जीव भिन्न है ऐसे अन्य पदार्थ भी हो सकते हैं तो सत्ताके आश्रय कैसे होजाएंगे. ५ अस्तित्व वा सत्ता. ६ जीवके. For Private And Personal Use Only

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