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पदार्थके सन्निधान होते ही विशेष्यविशेषणभावसे शून्य कुछ है इत्यादिरूपसे आकारका अहण करना दर्शनका स्वरूप है, तथा पदार्थोंका अवैशंद्य रूपसे, अर्थात् स्वच्छता तथा निर्मलतापूर्वक स्पष्टरीति न भासना परोक्षज्ञानका स्वरूप है, तथा वैशद्य अर्थात् निर्मलता वा स्वच्छता पूर्वक स्पष्टरीतिसे भासना प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप है और चार प्रकारके दर्शनोंमेंसे चक्षु तथा अचक्षुको निमित्त मानके जो दर्शन होता है, उसका नेत्र आदियोंसे उत्पन्न पदार्थकी सत्तामात्रका ग्रहण ही स्वरूप है, इसी प्रकार अवधिदर्शनका अवधिदर्शनके विषय भूत पदार्थकी सत्ताका ग्रहण करना स्वरूप है और परोक्ष ज्ञानमें भी मतिज्ञानरूप परोक्षज्ञानका इन्द्रिय तथा मनसे जन्य, अर्थात् उत्पन्न होकर अपनेसे प्रकाशनीय पदार्थका निश्चय होजाना ही स्वरूप है । तथा अनिन्द्रिय जो मन है, उस मनमात्रसे उत्पन्न होना परोक्ष ज्ञानका स्वरूप है । और इन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय मनकी कुछ भी अपेक्षा न रखकर, केवल आत्मामात्रकी अपेक्षासे निर्मलता पूर्व स्पष्टरीति अपने विषयभूत पदार्थोंका निश्चय करना यह विकलं प्रत्यक्षरूप अवधि तथा मन पर्य्ययज्ञानका स्वरूप है, और सम्पूर्ण द्रव्य, तथा सम्पूर्ण पर्य्यायोंको साक्षात्कार करना, यह सकल प्रत्यक्षरूप केवल ज्ञानका स्वरूप है। इस अपने २ स्वरूपसे भिन्न २ सत्त्व सबका पररूप है। इन्ही अपने स्वरूप तथा पररूपसे सत्त्व तथा असत्त्व जानेजाते हैं । इस प्रकार यहांतक तो स्वरूप पररूप आदिके अन्यस्वरूप पररूपादि हमने कहे, इस प्रकार उत्तरोत्तर ज्ञानोंके जो विशेष हैं उनके भी स्वरूप पररूपादिकी कल्पना बुद्धिमानोंको स्वयं करलेनी चाहिये । क्योंकि ज्ञानोंके भेद अवान्तर भेद पुनः उनके प्रभेद अनन्त हैं सबका निरूपण असंभव है.
ननु-प्रमेयस्य किं स्वरूपं किंवा पररूपम् ? याभ्यां प्रमेयं स्यादस्तिस्यानास्तीति व्यपदिश्येतेति चेत् ? उच्यते । प्रमेयस्य प्रमेयत्वं स्वरूपं, घटत्वादिकं पररूपम् । प्रमेयं प्रमेयत्वेनास्ति, घटत्वादिना नास्ति ॥
शङ्का-प्रमेयका क्या तो स्वरूप है और क्या पररूप है ? जिन स्वरूप तथा पररूपसे 'प्रमेयः स्यादस्ति तथा स्यान्नास्ति' कथंचित् प्रमेय है और कथंचित् नहीं है, ऐसा
१ अस्पष्ट जो स्वच्छ वा साफ २ न भासे अवैशद्य अर्थात् साफ न भासना यह परोक्ष प्रमाणका जैन मतमें लक्षण है. २ विशद अर्थात् स्पष्ट साफ प्रतिभास होना यह प्रत्यक्षका लक्षण है. ३ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार प्रकारके दर्शन हैं. ४ नेत्रसे भिन्न कर्णआदि इन्द्रियोंको मानकर. ५ मति तथा श्रुत इन दोनों ज्ञानोंको परोक्ष प्रमाण माना है. ६ नेत्र आदि इन्द्रिय तथा मन जिसको जिन मतमें अनिन्द्रिय भी कहते हैं इन दोनोंके निमित्तसे मतिज्ञान होता है. ७ अवधिज्ञान तथा मनःपर्यज्ञानको विकल प्रत्यक्ष और केवलज्ञानको सकलप्रत्यक्ष कहते हैं क्योंकि वह सम्पूर्ण द्रव्य तथा पर्याओंको साक्षात् करता है. ८ अनेक भेद मतिश्रुत अवधि मनः पय॑यः तथा केवल ये पांच ज्ञान जो प्रमाणरूप हैं इनमें प्रथम मतिज्ञानके ही अवग्रह ईहा अवाय धारणा ये चार भेद हैं, पुनः इन अवग्रहादिक एकके बहु बहुविधि अल्प एकविध तथा क्षिप्रादि वारह २ भेद हैं ऐसे ही श्रुतज्ञानके २४८ भेद होते हैं इनमें भी उत्तर पुरुषादिकी अपेक्षा लीजाय तो पार नहीं मिलेगा इस हेतुसे अनन्त विशेष भेद हैं,
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