Book Title: Saptabhangi Tarangini
Author(s): Vimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 56
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाद्यवच्छिन्नसत्त्वासत्त्वादिकं विषयीकरोतीति निरूपयितुमुपक्रान्तत्वात्। अन्यथा नानानिरंकुशविप्रतिपत्तीनां निवारयितुमशक्तेः । वस्तुनो हि यथैवाबाधितप्रतीतिस्तथैव स्वरूपव्यवस्था, 'मानाधीना मेयसिद्धिः' इति वचनात् । एवञ्च-स्वरूपादीनां स्वरूपाद्यन्तरं प्रतीयते वा नवा ? अन्त्येस्वरूपाद्यन्तरं नांगीक्रियत एव । एवमपि तेषामस्तित्वनास्तित्वव्यवस्थाऽग्रे प्रपञ्चयिप्यते । आद्य स्वरूपादीनामपि स्वरूपाद्यन्तरमंगीक्रियते, प्रतीत्यनुरोधात् । न चैवमनवस्था, यत्र स्वरूपाद्यन्तरस्य प्रतीतिस्तत्र व्यवस्थोपपत्तेः । तत्र जीवस्य तावदुपयोगसामान्यं स्वरूपं, तस्य तल्लक्षणत्वात् । उपयोगो लक्षणमिति वचनात् । ततोऽन्योऽनुपयोगः पररूपम् । ताभ्यां सदसत्त्वे प्रतीयेते । उपयोगसामान्यस्य च ज्ञानदर्शनान्यतरत्वं स्वरूपम् , इतरत्पररूपम् । उपयोगविशेषस्य ज्ञानस्य स्वार्थाकारनिश्चयात्मकत्वं स्वरूपम् , दर्शनस्य किंस्विदित्यादिरूपे णाकारग्रहणम् स्वरूपम् । ज्ञानस्यापि परोक्षस्यावैशा स्वरूपम् । प्रत्यक्षस्य वैशा स्वरूपम् । दर्शनस्यापि चक्षुरचक्षुनिमित्तस्य चक्षुरादिजन्यार्थग्रहणं स्वरूपम् । अवधिदर्शनस्यावधिविषयीभूतार्थग्रहणं स्वरूपम् । परोक्षस्यापि मतिज्ञानस्येन्द्रियानिन्द्रियजन्यत्वे सति स्वार्थाकारव्यवसायात्मकत्वं स्वरूपम् । अनिन्द्रियमात्रजन्यत्वं श्रुतस्य स्वरूपम् । प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधिमनःपर्यायलक्षणस्येन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षत्वे सति स्पष्टतया स्वार्थव्यवसायात्मकत्वं स्वरूपम् । सकलप्रत्यक्षस्य केवलज्ञानलक्षणस्य सकलद्रव्यपर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपम् । ततोन्यत्सत्त्वं तु पररूपम् । ताभ्यां सदसत्त्वे प्रतिपत्तव्ये । एवमुत्तरोत्तरविशेषाणामपि स्वरूपपररूपे बुद्धिमद्भि रूटे । तद्विशेषप्रतिविशेषाणामनन्तत्वात् । शङ्का सम्पूर्ण पदार्थोंकी व्यवस्था स्वरूप अर्थात् निजरूप द्रव्य क्षेत्र काल, तथा परके रूप, द्रव्य, क्षेत्र तथा काल इन चारोंके समुदायसे स्वीकार करनेपर रूप द्रव्य क्षेत्र तथा काल ये भी पदार्थ हैं इनका भी स्वरूप द्रव्यादि होना चाहिये, सो तो मानना नहीं, तब स्वरूप चतुष्टयके अन्य स्वरूप आदि चतुष्टयके अभावसे कैसे इनकी व्यवस्था होसकती है और यदि स्वरूप, द्रव्य क्षेत्र तथा काल इन चारोंके भी अन्य स्वरूप द्रव्य क्षेत्र कालकी सत्ता मानोगे तो उनके भी अन्य स्वरूप द्रव्य आदि तथा पररूप द्रव्यादि चारों मानने पड़ेंगे, तथा उनके भी अन्य स्वरूप द्रव्य आदि चारों होंगे, इस प्रकार अनवस्था दोष होगा, कहीं विश्राम न मिलेगा क्योंकि जो २ स्वरूप द्रव्य आदि मानोंगे उन सभोंको अपने स्वरूपका बोध करानेके लिये दूसरे स्वरूप पररूप द्रव्य आदिकी आवश्यकता पडती बराबर लगातार चली जायगी कहीं भी व्यवस्था नहीं हो सकती, इसलिये अतिदूरजाके भी किसी पदार्थकी व्यवस्था करनेमें उसके जब स्वरूप द्रव्य आदि चतुष्टयके दूसरे स्वरूप आदि चतुष्टयके न होनेपर भी वस्तुकी व्यवस्था तो अवश्य करनी है, तो पदार्थोंके सत्व असत्वको प्रमाणित करनेवाली तथा अपने ही घर अर्थात् जैन मतमें माननीय, इस स्वरूप तथा पररूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षा रखनेवाली प्रक्रियासे क्या प्रयोजन है १ क्योंकि वस्तुका स्वरूप जैसे भासता है वैसी ही व्यवस्था करनी योग्य है । यदि ऐसा कहो तो-आप वस्तुके स्वरूपकी परीक्षासे अज्ञात हो । क्योंकि वस्तुके For Private And Personal Use Only

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