Book Title: Saptabhangi Tarangini
Author(s): Vimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ अर्पित घट पट यह उभयरूप अन्य २ हैं, यह अनुभव किसीकोभी नहीं होता । क्योंकि क्रमसे योजना करो वा साथ, पदार्थ वही घट पट उभयरूप दोनों दशामें हैं। अथ क्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वोभयापेक्षयाऽक्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वोभयस्य भेदाभावेऽपि न क्षतिः । अपुनरुक्तवाक्यसप्तकस्यैव सप्तभङ्गीपदार्थत्वेन सप्तधा वचनमार्गप्रवृत्तेर्निराबाधत्वात् । सत्त्वासत्त्वधर्मविषयतया सप्तधैव वचनमार्गाः प्रवर्तन्ते नातिरिक्ताः, पुनरुक्तत्वादित्यत्र सप्तभङ्गीतात्पर्यात् । स्वजन्यबोधसमानाकारबोधजनकवाक्योत्तरकालीनवाक्यत्वमेव हि पुनरुक्तत्वम् । प्रकृते च तृतीयचतुर्थयोर्नेदृशं पौनरुक्त्यं सम्भवति, तृतीयभङ्गजन्यबोधे अस्तित्वविशिष्टनास्तित्वस्य प्रकारतया चतुर्थभङ्गजन्यबोधे चास्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्रकारतया तृतीयचतुर्थजन्यबोधयोस्समानाकारत्वविरहात्-इति चेन्न । तथा सत्यधिकभङ्गस्य दुर्निवारत्वात् । तथाहि-यथा तृतीयचतुर्थयोरपौनरुक्त्यं विलक्षणबोधजनकत्वात् । तथा व्युत्क्रमार्पितस्य स्यान्नास्ति चास्ति चेति भङ्गस्य नास्त्यस्तित्वसहितावक्तव्यत्वप्रतिपादकभङ्गान्तरस्य च न तृतीयसप्तमाभ्यां पौनरुक्त्यम् । अस्तित्वविशिष्टे नास्तित्वप्रकारकबोधस्य तृतीयेन जननात्, व्युत्क्रमप्रयुक्तेन नास्तित्वसहितास्तित्वप्रकारकबोधस्य जननाच्च विशेषणविशेष्यभावे वैपरीत्येन तादृशबोधयोस्समानाकारत्वाभावात् । एवं सप्तमेनापि व्युत्क्रमार्पितोभयसहितावक्तव्यत्वप्रतिपादकभङ्गस्येति नवभङ्गी प्राप्नोति । इति चेत् । कदाचित् यह कहो कि क्रमसे योजित सत्त्व असत्त्व इस उभयरूपकी अपेक्षासे अक्रम योजित सत्त्व असत्त्व इस उभयरूपका भेद न होनेपरभी कोइ हानि नहीं है। क्योंकि पुनरुक्तिदोषरहित वाक्यसप्तक समुदायरूप ही सप्तभङ्गी पदार्थ है । उसके द्वारा सप्त प्रकारसे वचनमार्गकी प्रवृत्तिमें कोई बाधा नहीं है । सत्त्व असत्त्व धर्मके विषयतारूपसे सप्तभेदसे वचनके मार्ग प्रवृत्त हो सकते हैं न कि अधिक । क्योंकि अधिक होनेसे पुनरुक्तिदोष आता है । इसी अर्थके बोधनमें सप्तभङ्गीन्यायका तात्पर्य है । क्योंकि एक वाक्यजन्य जो बोध है उसी बोधके समान बोधजनक यदि उत्तर कालका वाक्य हो तो यही पुनरुक्तदोष है । और प्रचलित प्रकरणमें तृतीय 'स्यादस्ति नास्ति च घट:' तथा चतुर्थ 'स्यादवक्तव्य एव घट:' भङ्गोंमें ऐसा पुनरुक्तदोषसंभव नहीं है. क्योंकि तृतीयभङ्गजन्य ज्ञानमें अस्तित्वविशिष्ट नास्तित्व प्रेकारतासे भासता है और चतुर्थ 'स्यादवक्तव्य एव' भङ्गजन्य ज्ञानमें अस्तिनास्तित्व उभयत्वरूप अवक्तव्यत्वके साथ अन्वित होकर प्रकारतासे भासता है. इस कारण तृतीय तथा चतुर्थ भङ्गसे उत्पन्न ज्ञानोंमें समानाकारता नहीं है क्योंकि तृतीय भङ्गजन्यबोधमें अस्तित्वनास्तित्वप्रकारता अवच्छेदक धर्म है । और चतुर्थभङ्गजन्यबोधमें उभयत्वप्रकारता अवच्छेदक धर्म है इस हेतुसे अवच्छेदक धर्म भिन्न होनेसे समान आकारवाले बोधका अभाव है। सो यह कथनभी युक्त नहीं है । क्योंकि ऐसा भेद माननेसे सप्तभङ्गसे अधिक भङ्गकी संख्या दुर्निवारणीय है । इसका निरूपण १ दो वा दोका समुदाय. २ विनाक्रम. ३ सात. ४ एक वाक्यसे उत्पन्न. ५ ज्ञान. ६ सप्तभङ्गी नय. ७ उत्पन्न. ८ सहित विशेषणता. १० उत्पन्न. ११ सादृश्य. १२ ज्ञान. १३ कठिनतासे दूर करनेयोग्य. For Private And Personal Use Only

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