________________
उसका भी ज्ञान हो जाएगा। परन्तु जहां पढ़नेवाला अकेला हो वहां सब रूप तथा वाक्य बनाकर कागज़ पर लिखने चाहिए और उनको बार-बार पढ़कर याद करना चाहिए।
संस्कृत में जहां-जहां दो स्वर अथवा दो व्यंजन एक-साथ आ जाते हैं वहां वे ख़ास ढंग से मिल भी जाते हैं। इन्हें संधियां कहते हैं। हमने जहां तक हो सका है इस प्रकार की सन्धियां नहीं दी हैं। प्रथम भाग की अपेक्षा द्वितीय भाग में ये सन्धियां अधिक दी जा रही हैं।
संधियां कहां और किस प्रकार करना चाहिए इसके नियम निम्नलिखित हैं
नियम 1-एक पद (शब्द) के अन्दर जोड़ (सन्धि) अवश्य होनी चाहिए। जैसे-रामेषु, देवेषु, रामेण इत्यादि।
सप्तमी के बहुवचन का प्रत्यय 'सु' है परन्तु इसके पीछे 'ए' होने से 'सु' का 'षु' बनता है। एक पद (शब्द) में होने से यह सन्धि आवश्यक है। प्रथम पाठ में दिये गये नियम 3 के अनुसार 'रामेण' में नकार का णकार करना भी आवश्यक है क्योंकि यह भी पद है।
नियम 2-धातु का उपसर्ग के साथ जहां सम्बन्ध होता है वहां सन्धि आवश्यक है। (केवल वेदों में धातुओं से उनका उपसर्ग अलग रहता है, इस कारण वहां यह नियम नहीं लगता।) जैसे उत्+गच्छति-उद्गच्छति। निः+बध्यते निर्बध्यते।
नियम 3- समास में भी सन्धि अवश्य करनी चाहिए। जैसे- जगत् + जननी = जगज्जननी। तत् + रूपं = तद्रूपम्।
नियम 4- पद्यों में भी बहुत अंशों में सन्धि आवश्यक होती है।
नियम 5- बोलने के समय बोलनेवाला सन्धि करे अथवा न करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर होता है। जहां आसानी हो, वहां वह सन्धि करे, जहां न हो, न करे। अथवा जहां बोलनेवाला सन्धि करके सुननेवाले को अर्थ का बोध सुगमता से करा सके, वहाँ सन्धि करे, अन्यत्र न करे। ___इस नियम के अनुसार इस पुस्तक में बहुत स्थानों पर सन्धि नहीं की गई है, जहां आवश्यक प्रतीत हुआ वहीं की गई है। 'स्वयं-शिक्षक' का उद्देश्य विद्यार्थियों का सुगमता से संस्कृत भाषा में प्रवेश कराना है। इसलिए आरंभिक अवस्था में सन्धि न करना ही उचित है। यदि आरम्भ में ही सन्धियां करके वाक्यों की लम्बी लड़ियां बनायी जाएंगी तो पाठक घबरा जाएंगे तथा उनकी बुद्धि में संस्कृत का प्रवेश नहीं होगा।
अब तक संस्कृत सिखाने की जो पुस्तकें बनी हैं, उनमें सब स्थानों पर सन्धियां होने से पाठक उनको स्वयं नहीं पढ़ सकते, न उनसे स्वयं लाभ उठा सकते हैं। सन्धियों के पत्थर तोड़कर संस्कृत-मन्दिर में प्रवेश कराने का कार्य इस पुस्तक का है। पाठक 27