Book Title: Sanskrit Swayam Shikshak
Author(s): Shripad Damodar Satvalekar
Publisher: Rajpal and Sons

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Page 336
________________ 28. सुख् (सुख-क्रियायाम्) = सुख देना-सुखयति, सुखयते। 29. स्निह (स्नेहे) = मित्रता करना-स्नेहयति, स्नेहयते। इन धातुओं के शेष रूप पाठक स्वयं बना सकते हैं। दशम गण के धातुओं के रूप बनाना बहुत सुगम है। वाक्य पुत्रः पितरं सुखयति। पुत्रौ पितरं सुखयतः। पुत्राः पितरं सुखयन्ति। तव पुत्रः त्वां सुखयिष्यति। तव पुत्रौ त्वां सुखयिष्यतः। तव पुत्रास्त्वां सुखयिष्यन्ति। त्वं तं सान्त्वयसि किम् ? स त्वां सान्त्वयिष्यति। स बालः किं वदति। स पशु बन्धनान्मोचयति। तौ स्वशरीरे भूषयतः। ते स्वशरीराणि भूषयन्ति। यूयम् अन्नं भक्षयथ। पुरुषौ स्वशरीरे पोषयेते। (पाठकों को चाहिए कि वे उक्त धातुओं के रूप बनाकर इस प्रकार उपर्युक्त वाक्य बनाएं और बोलने में उनका उपयोग करें।) अब पाठक प्रथम और दशम गण के धातुओं के रूप बना सकते हैं। इसलिए अब षष्ठ (छठे) गण के धातुओं के रूप बनाना बताते हैं षष्ठ गण के धातु परस्मैपद। वर्तमानकाल मृड् (सुखने) = आनन्द करना मृडतः मृडन्ति मृडसि मृडथः मृडथ मृडामि मृडावः मृडामः षष्ठ गण के धातुओं के लिए प्रत्ययों के पूर्व 'अ' लगता है- मृड्+अ+ति। इसी प्रकार अन्य रूप बनते हैं। प्रथम गण के समान ही ये रूप हुआ करते हैं, ऐसा साधारणतः समझने में कोई विशेष हर्ज नहीं। भविष्यकाल भी प्रथम गण के समान ही होता है। प्रथम गण में और षष्ठ गण में जो विशेषता है, उसका बोध पाठकों को आगे जाकर हो जायगा। परस्मैपद। भविष्यकाल मृड् मर्डिष्यति मर्डिष्यतः मर्डिष्यन्ति मर्डिष्यसि मर्डिष्यथः मर्डिष्यथ मर्डिष्यामि मर्डिष्यावः मर्डिष्यामः मृडति

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