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(4) उच्चनाना न प्रतीपं भावन्ते पृष्टा हितप्रियं विशपयन्ति ।
( 5 ) अनादिष्टाः कुर्वन्ति । कृत्वा न अल्पन्ति । पराक्रम्य न विकल्पन्ते ।
(6) कथ्यमाना अर्पि' लज्जाम् उद्वहन्ति । महाहवेअग्रतो ध्वज' भूता इव लक्ष्यन्ते ।
(7) दानकाले पलाय्य पृष्ठतो निलीयन्ते । धनात्स्नेहं भूयांसं मन्यन्ते ।
( 8 ) जीवितात् पुरो मरणं अभिवाञ्छन्ति । गृहाद् अपिस्वामिपादमूले सुखं तिष्ठन्ति ।
(9) येषां तृष्णा चरणपरिचर्यायाम्, असन्तोषो" हृदयाऽऽराधने, व्यसनम् आननालोकने ।
( 10 ) वाचालता गुणग्रहणे, कार्पण्यम् अपरित्यागें भर्तुः ।
( 11 ) ये च विद्यमाने स्वामिनी अस्वाधीनसकलेन्द्रियवृत्तयः, पश्यन्तोऽपि अन्धा" इव, शृण्वन्तोऽपि " बधिरा" इव, वाग्मिनोऽपि " मूका " इंव, जानन्तोऽपि " जड़ा 17 इव, अनपहतकरचरणाः 18 अपि पङ्गव इव, आत्मनः स्वामिचिन्तादर्शे प्रतिबिम्बवद् वर्तन्ते ।
(कादम्बरी)
(4) बोलने पर विरुद्ध नहीं बोलते। पूछने पर हितकर प्रिय बताते हैं ।
(5) हुकुम न करने पर (कार्य) करते हैं, करके बोलते नहीं हैं । पराक्रम करके नहीं बोलते हैं ।
(6) कहे जाते हुए भी लज्जा करते हैं। बड़े युद्ध में आगे झण्डे के समान दीखते हैं।
(7) दान के समय भागकर पीछे छिप । जाते हैं। धन से मैत्री अधिक समझते हैं ।
(8) जीने से बढ़कर मरण चाहते हैं। घर से भी स्वामी के पाँव के मूल में आनन्द से ठहरते हैं ।
( 9 ) ( नौकर वह ) जिनकी इच्छा चरणों की सेवा में है, असन्तोष हृदय के आराधन में है, व्यसन मुँह देखने में है (जिसमें ) ।
(10) गुण लेने में बहुत बोलना, कंजूसी स्वामी के न छोड़ने में (हो) ।
( 11 ) और जो स्वामी के रहते हुए अपनी इन्द्रियों की वृत्तियाँ अपने लिये नहीं रखते, देखते हुए भी अन्धे के समान हैं, सुनते हुए भी बहरे हैं, बोलने वाले होने पर भी गूंगे ( हैं ) जानते हुए भी जड़ के समान (है) हाथ-पांव साबुत होने पर भी लू के समान ( हैं ), जो अपने स्वामी के चिन्ता रूपी शीशे में प्रतिबिम्ब के समान रहते हैं ।
(कादम्बरी)
7.
5. पृष्टाः + हित। 6 मानाः + अपि । 10. असन्तोष: + ह्रदया. 11. अन्धाः + इव । 12.
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15. मूकाः + इव। 16. जानन्तः+अपि । 17. जड़ा:+इव। 18. चरणाः+अपि । 19. पङ्गवः+इवः ।
हवेषु + अग्रतः । 8 शृण्वन्तः: + अपि । 13.
अग्रतः + ध्वज । 9 भूताँ + इव बधिराः + इव । 14: वाग्मिनः+अपि