Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Punyapalsuri
Publisher: Parshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad

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Page 16
________________ | कुछ वर्ष तक वह ग्रंथ जैसा का तैसा ही पड़ा रहा, संवत् १९३८ में गोंडल | (काठियावाड) निवासी कोठारी नेमचंद हीराचंद ने अपनी दुर्गति की प्राप्ति में अन्य को | साथी बनाने के वास्ते राजकोट (काठियावाड) में छपवा कर प्रसिद्ध किया । पूर्वोक्त ग्रंथ को देख कर शुद्ध जैनमताभिलाषी भव्यजीवों के उद्धार के निमित्त पूर्वोक्त ग्रंथ के खंडनरूप सम्यक्त्वशल्योद्धार नाम यह ग्रन्थ श्रीतपगच्छाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरि प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी महाराज ने संवत् १९४० में बनाया जिस को संवत् १९४१ में भावनगर (काठियावाड) की श्रीजैनधर्म प्रसारक सभा ने अहमदावाद में गुजराती बोली में और गुजराती ही अक्षरों में छपवा कर प्रसिद्ध किया, परंतु पंजाब मारवाडादि अन्य देशों में उस का प्रचार न होने से बडौदा स्टेटनिवासी परमधर्मी शेठ | गोकल भाई ने प्रयास कर शास्त्री अक्षरों में संवत् १९४३ में छपवा कर जैसा का वैसा ही प्रसिद्ध किया, तथापि बोली का फरक होने से अन्य देशों के प्रेमी भाईयों को यथायोग्य | लाभ नहीं मिला इस वास्ते शेठ गोकलभाई की खास प्रेरणा से श्रीआत्मानंद जैनसभा पंजाब की आज्ञानुसार अपने प्रेमी शुद्धजैनमताभिलाषी भाईयों के लिये यथाशक्ति | यथामति इस ग्रंथ को सरल भाषा में छपवाने का साहस उठाया है, और इस से निश्चय | होता है कि आप लोग इस ग्रंथ को संपूर्ण पढ कर मेरे उत्साह की वृद्धि जरूर ही करेंगे ।। यद्यपि पूर्वे बहुत बुद्धिमान आचार्यों ने इस ढूंढकमत का सविस्तर खंडन पृथक् २ ग्रंथों में लिखा है । श्रीसम्यक्त्वपरीक्षा नामक ग्रंथ अनुमान दश हजार श्लोक प्रमाण है उस में ढूंढकमती की बनाई ५८ बोल की हुंडी का सविस्तर उत्तर दिया है । | श्रीप्रचनपरीक्षा नामक ग्रंथ अनुमान वीस हजार श्लोक हैं उस में ढूंढकमत की उत्पत्ति | सहित उन के किये प्रश्नों के उत्तर दिये हैं । श्रीमद् यशोविजयोपाध्यायजी ने लींबडी (काठियावाड) निवासी मेघजी दोसी जो ढूंढिये थे उनके प्रतिबोध निमित्त | श्रीवीरस्तुतिरूप हुंडीस्तवन बनाया है, जिस का बालावबोध सूत्रपाठ सहित सविस्तर पंडित शिरोमणि श्रीपद्मविजयजी महाराज ने बनाया है । जिसकी श्लोक संख्या | अनुमान तीन हजार है उस में भी संपूर्ण प्रकार ढूंढकमत का ही खंडन है । ढूंढकमतखंडननाटक इस नाम का ग्रंथ गुजराती में छपा प्रसिद्ध है जिस में भी बत्तीस सूत्रों के पाठों से ढूंठकपक्ष का हास्य रस युक्त खंडन किया है । इत्यादि अनेक ग्रंथ ढूंढकमत के खंडन विषयक विद्यमान हैं तो उसी मतलब के | अन्य ग्रंथ बनाने का वृथा प्रयास करना योग्य नहीं है ऐसा विचार के केवल समकितसार के कर्त्ता जेठमल की स्वमति कल्पना की कुयुक्तियों के उत्तर लिख ने वास्ते ही ग्रंथकार ने इस ग्रंथ को बनाने का प्रयास किया है । ढूंढियों के साथ कई बार चर्चा हुई और ढूंढियोंकी ही पराजय होती रही । पंडितवर्य श्रीवीरविजयजी के समय में श्रीराजनगर ( अहमदावाद) में सरकारी अदालत में विवाद हुआ था जिस में ढूंढिये हार गये थे । इस विवाद का सविस्तर वृत्तांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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