Book Title: Samyaktva Sara Shatak
Author(s): Gyanbhushan Maharaj
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 11
________________ वह भी पूरा लाभ उठाता है । आप संस्कृत की कविता करने मे बड़े सिद्धहस्त हैं। आपने "जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय भद्रोदय, दयोदय और हिन्दी छन्दोबद्ध समयसार आदि कई अन्यों की रचना की हैं उनमें से जयोदय-काव्य तो श्री वीरसागर संघ की ओर से प्रकाशित हो लिया है शेप ग्रन्थ अभी अप्रकाशत हैं। आपके इस सम्यक्त्वसार अन्य की संस्कृत सरससुबोध और चित्ताकर्पक भी है उस पर भी आपने इस की हिन्दी मे टीका करके तो सोने में सुगन्धवाली कहावत करदी है । अन्य का विपय तो नाम से ही सुस्पष्ट है। जिनशासन में सन्यक्त्व के महत्व पर विशेप जोर दिया गया है । सामान्य गृहस्थ से लेकर बड़े से बड़े त्यागी- जब तक कि उनकी आत्मा में सम्यक्त्व का उदय नहीं होता, तब तक उनका गार्हस्थ्य एवं त्याग निरर्थक ही है । यही बात इस ग्रन्थ मे एक शतक लोकों में क्तलाई गई है । ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थको ऐसे सुन्दर ढंगसे लिखा है कि मानवमात्र इसको पढ कर लाभ उठा सकता है। प्रारम्भमे ही बतलायागया है कि सम्यक्त्व आत्माकी वास्तविक अवस्या का नाम है, उसी को धर्म कहते हैं । वह सम्यग्दर्शनज्ञान और चारित्र के भेद से तीन भागों में विभक्त होता है। सातवे श्लोक में बतलाया है कि-संसारी प्राणी की अहवा और ममता करना ही उसका पागलपन है, भूल है, खोटापन या बिगाड़ है, इसी को जैनागम में मिथ्यात्व कहा गया है। १९ वे श्लोक मे बतलाया गया है कि जीव जब राग द्वेषमय बनता है वो स्वयमेव पुद्गलवर्गणायें भी उसके लिये कर्मरूप बन जाती हैं। आगे चल कर तीसवें श्लोक मे- सम्यग्दर्शन

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