Book Title: Sambodhi 2003 Vol 26
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ 78 वसन्तकुमार भट्ट SAMBODHI कभी भी अधिकार नहीं है । अत: तूं कर्मफल प्राप्त करने के प्रयोजन से मुक्त हो जा । लेकिन अकर्म, यानी कर्मत्याग करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिए ।" श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि - तूं कर्म कर, परन्तु फलाशा को छोड़ दे । “कर्म करने के बाद यदि मुझे फलाशा भी छोड़ देनी है तो मैं कर्म ही क्यों करूं ?" ऐसा सोच कर, कर्म का त्याग भी नहीं करना है । अर्थात् कर्म तो करना ही है, और फलाशा भी नहीं रखनी है। इस तरह अनासक्तभाव से किये हुए कर्म ही कर्मबन्धन के अभाव को जन्म देता है। इस तरह - "कर्म का त्याग नहीं, परन्तु फलासक्ति का त्याग" यह श्रीकृष्ण . के 'कर्मयोग' का अत्यल्प शब्दो में स्पष्ट अर्थघटन हुआ ऐसा कह सकते है ॥ परन्तु ऐसे 'कर्मयोग' के आगे और पीछे एक-एक मानसिक अभिगम जोड़ना भी जरूरी है। 'फलाशा का त्याग करना' यह कर्मयोग का यदि केन्द्रवर्ती विचार है, तो सब से पहले यह सोचना पड़ेगा कि वह फलाशा या फलासक्ति कैसे छूटे ? सांख्यदर्शन कहता है कि सृष्टि में जितने भी कर्म होते हैं वह, त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही जीवात्मा के पास करवा रही है। परन्तु अज्ञानवशात् अहंकार से प्रेरित होकर जीवात्मा "यह कर्म में कर रहा हूँ - ऐसा मानता है। और 'यह कर्म मैंने किया है, इसलिए उसका फल मुझे ही मिलेगा, या मुझे ही मिलना चाहिए' - ऐसी आशा एवं अपेक्षा का जन्म होता है । जो धीरे धीरे बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है। एतः ऐसी फलासक्ति का त्याग करने के लिए पहले "यह कर्म मैं (जीवात्मा) कर रहा हूँ "- ऐसे अहंभाव को हटाने की जरुरत है। कर्म करने से पहले यदि अहंभाव का त्याग किया होगा; और प्रकृति के तीन गुण ही सभी कर्म करते हैं/करवाते हैं ऐसा माना होगा तो (अहंकार की अनुपस्थिति में) फल प्राप्त करने की इच्छा, आकांक्षा का जन्म ही नहीं होगा; और इस तरह "फलासक्ति के त्याग" का केन्द्रवर्ती विचार सिद्ध किया जायेगा । उसके बाद, गीता कहती है कि जो कर्म करो, उसको ईश्वरको समर्पित कर दो (९-२७) । मैं ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर, ईश्वर के लिए कर्म करता हूँ। अतः यह कर्म ही मैं ईश्वर को समर्पित करता हूँ - ऐसा मानने पर ही श्रीकृष्ण का 'कर्मयोग' पूर्णतया सिद्ध हो गया ऐसा जानना चाहिए ॥ इस तरह श्रीकृष्ण के 'कर्मयोग' में क्रमश: तीन बिन्दुओं ध्यानास्पद हैं : १. अहंकार का त्याग, २. फलासक्ति के त्यागपूर्वक कर्तव्य कर्म करना, और ३. कर्म ईश्वर को ही समर्पित कर देना ॥ इस दृष्टिकोण से किये गये कर्म ही कर्मबन्धन को जन्म नहीं देता है। कर्म करने पर भी कर्मबन्धन का अभाव बना रहे यह 'कर्मयोग' की गुरुचाभी है। श्रीकृष्ण 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय में कहते हैं कि उन्होंने बताये हुए कर्मयोग से केवल कर्मबन्धन का अभाव ही रहता है ऐसा नहीं है। ऐसे कर्मयोग से तो परमात्मा की भी प्राप्ति होती है : तस्माद् असक्तः सततं, कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन् कर्म, परम् आप्नोति पूरुषः ॥ ३-१९ "हे अर्जुन ! अतः तुम सतत अनासक्त हो के करने योग्य कर्म अच्छी तरह से किया करो । अनासक्त भाव से कर्म करनेवाला पुरुष (जीवात्मा) परमतत्त्व (परमात्म तत्त्व) को प्राप्त कर लेता है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184