Book Title: Sambodhi 2003 Vol 26
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 102
________________ 96 सुनीता कुमारी SAMBODHI सृष्टि कैसे होती है ? इस प्रश्न पर विचार करने पर हमारे समक्ष नर-मादा का एक युगल प्रकट होता है जिनके परस्पर समागम से एक नए जीव का जन्म होता है। इस तरह सृष्टि-प्रक्रिया का प्रवाह अबाध गति से चलायमान रहता है । इस सम्बन्ध में पुराणकारों ने भी अपने विचार इस रुप में प्रकट किए हैं - "ब्रह्मा ने अपने शरीर में से एक स्त्री की रचना की जो शतरुपा, सावित्री, गायत्री, ब्राह्मणी आदि नामों से जानी है । स्त्री रुप में रचित इस काया पर ब्रह्मा स्वयं आसक्त हो गए । बाद में ब्रह्मा ने उस रुपवती स्री के साथ पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् कालक्रम के व्यतीत होने पर शतरुपा को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई जिसने सृष्टि-प्रक्रिया को गतिशीलता प्रदान करने में प्रमुखता से योगदान दिया ।" यहाँ पर शतरुपा के साथ ब्रह्मा का पाणिग्रहण अर्थात् पिता का पुत्री के साथ विवाह यह एक निन्दनीय व्यभिचार है, जिस पर आक्षेप किया गया है । लेकिन पुराणों में इस आक्षेप का उत्तर भलीभाँति दिया गया है। "मत्स्यपुराण" में वर्णित है कि “इस वर्तमान जगत् की आदिसृष्टि रजोगुणमयी थी, उसमें इन्द्रिय तथा शरीरादि का सम्बन्ध अगोचर रहता था ।" इसलिये यह सम्पूर्ण आदिसृष्टि दिव्य तेजोमयी एवं दिव्य ज्ञान से सम्बन्धित है। मांस के पिण्ड से उत्पन्न होने वाला मानव-समाज अपनी आंखो से इसे सब ओर से भली-भाँति नहीं समझ सकता । जिस प्रकार सर्पो के मारग को सर्प, आकाशमार्ग को आकाशगामी पक्षीगण ही जान सकते हैं । उसी प्रकार दिव्य मार्ग को दिव्य गुणवाले ही जान सकते हैं, मनुष्य नहीं । देवताओं के कार्य (करने योग्य) और अकार्य (अनुचित) शुभ और अशुभ फलों को देने वाले नहीं होते । अतः मनुष्य को इसका विहार करना श्रेयस्कर नहीं । पुनः मत्स्य-पुराण में ही कहा गया है कि, "जिस प्रकार ब्रह्माजी सभी वेदों के अध्यक्ष हैं उसी तरह गायत्री भी उनकी अंगस्वरुपा कही जाती हैं । इस रहस्य को जानने वाले पण्डित लोग उनके इस मिथुन को अमूर्त एवं मूर्तिमान् दोनों कहते हैं । उनका यह पारस्परिक सम्बन्ध इतना अविच्छेद्य है कि जहाँ पर भगवान् ब्रह्मा निवास करते हैं, वहाँ पर सरस्वती भी विद्यमान रहती हैं, और जहाँ-जहाँ सरस्वती निवास करती हैं, वहाँ-वहाँ ब्रह्मा भी विद्यमान रहते हैं । जिस प्रकार बिना धूप के छाया कहीं नहीं दिखाई पडती उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्मा का सामीप्य कभी नहीं छोडती । ब्रह्माजी वेदों के अधिकारी माने गए हैं और सावित्री पर उनका पूर्व आधिपत्य है अतः सावित्री के साथ गमन करने में उन्हें कोई अपराध नहीं लगा ।"६ फिर भी ब्रह्मा इस कार्य से लज्जित हुए । उन्होंने इसका उत्तरदायी कामदेव को माना और उसे शाप दिया । पुराणों में प्राकृत, वैकृत एवं प्राकृत-वैकृत सर्ग के रुप में भी सृष्टि-सम्बन्धी मतों पर प्रकाश डाला गया है। मार्कण्डेय-पुराण में कहा गया है कि "प्राकृत-सर्ग बुद्धिपूर्वक होता है तथा यह तीन प्रकार का है । वैकृत-सर्ग विकार से युक्त है । यह पाँच प्रकार का होता है । प्राकृत-वैकृत-सर्ग कौमार-सर्ग के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार यदि हम इन तीनों सर्गो के भेदों को एक साथ मिलाएँ तो हमारे समक्ष नौ प्रकार की सृष्टि या सर्ग उपस्थित होते हैं । सम्भवतः इसीलिए विद्वानों ने पुराणों में नव-सृष्टि की परिकल्पना की है। प्राकृत-सर्ग के तीन प्रकार है- 1- ब्रह्मसर्ग, 2-भूतसर्ग, 3-वैकारिकसर्ग । वैकृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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