Book Title: Sambodhi 2003 Vol 26
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 103
________________ 97 Vol. xxVI, 2003 पुराण, सर्ग और सृष्टि-विकास सर्ग पाँच हैं - । 1 - मुख्य सर्ग, 2-तिर्यक्सर्ग, 3-देवसर्ग, 4- मानुषसर्ग, 5-अनुग्रहसर्ग । प्राकृतवैकृत-सर्ग के अन्तर्गत एक मात्र कौमार सर्ग आता है ।" (1) ब्रह्म-सर्ग : पहला सर्ग महत्तत्त्व है जो गुणों की विषमता मात्र है। प्रकृति का प्रथम विकार महत्तत्त्व ही है। ब्रह्मा बुद्धिपूर्वक सृष्टि का जो प्रारम्भ करते हैं उसके परिणामस्वरुप महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है । मत्स्य-पुराण में कहा गया हा कि प्रकृति के तीनों गुणों के विकारों के प्रमुख अंश से महतत्त्व की उत्पत्ति होती है और इसी से मान बढ़ाने वाले अहंकार की उत्पत्ति होती है जो लोकनिर्माण का प्रमुख कारण है ।१२ यह तो स्पष्ट है कि प्रकृति के गुणों में, जो कि साम्यवस्था में रहते हैं, ब्रह्मा (नारायण, विष्णु, परमात्मा) के द्वारा ही क्षोभ उत्पन्न होता है एवं इसी गुणक्षोभ के फलस्वरुप महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। सष्टि की इच्छा के कारण ही परमात्मा ऐसा करते (2) भूत-सर्ग : पञ्च-तन्मात्राओं की सृष्टि का यह अभिधान है। तन्मात्राएँ पृथिव्यादि पंचभूतों की अत्यन्त सूक्ष्म अवस्थाऐ हैं । त्रिगुण में रजोगुण की अधिकता से अहंकार उत्पन्न होता है और उस अहंकार से तन्मात्राओं की सृष्टि होती है। इसे भूत के नाम से जाना जाता है। इसी लिए पंचतन्मात्राओं की सृष्टि को भूत-सर्ग के नाम से अभिहित किया जाता है ।३ । (3) वैकारिक-सर्ग : भूत-सर्ग में विकार आ जाने पर जो सृष्टि होती है वह वैकारिक-सर्ग है । इसे ऐन्द्रिक सर्ग भी कहा जाता है। सात्विक वैकारिक अहंकार से सत्त्व के प्रभाव के कारण वैकारिक सृष्टि होती है । भूत-सर्ग में तामस गुण की बहुलता रहती है, जब कि इस वैकारिक-सर्ग में सत्त्व गुण का आधिक्य रहता है । बलदेव उपाध्याय के मतानुसार राजसिक गुण दोनों प्रकार की सृष्टि में समान रुप से पाए जाते हैं अर्थात् क्रियाशील रहते हैं। यही कारण है कि उस रुप से किसी पदार्थ का उदय नहीं होता हैं ।५ इस सर्ग के अन्तर्गत पञ्चज्ञानेन्द्रिय, पञ्चकर्मेन्द्रिय एवं मन आते (4) मुख्य-सर्ग : जब भगवान् नारायण ने पृथ्वी का उद्धार किया तथा इसे जल के उपर प्रतिस्थापित किया उस समय यह पृथ्वी नौका के सामन जल पर डोलती रहती थी । अतः भगवान् ने इसे स्थिरता प्रदान करने के लिए इसके धरातल को समतल किया तथा पर्वतादि का निर्माण किया ।१६ इसके पश्चात् वे सृष्टि-विषयक कल्पना करने लगे। परमपिता की यह कल्पना पूर्व सृष्टि पर आधारित थी। उनकी इस परिकल्पना के कारण पञ्चपर्वी अविद्या के रुप में अबुद्धिपूर्वक तमोगुणी सृष्टि का आविर्भाव हुआ । ब्रह्माण्डपुराण में कहा गया है कि उन महान् आत्मावाले को पञ्च पर्वा अविद्या प्रादुर्भूत हुई थी जिनके नाम हैं - तम, मोह, महामोह, तामिस और अन्ध । इस समय जिस बीज, कुम्भ और लताओं की सृष्टि हुई वे तम से आवृत्त थे तथा अन्दर एवं बाहर दोनों तरफ प्रकाश नहीं था, मात्र अन्धकार ही था । वे तमस गुणों से युक्त थे तथा दुःख से परिपूर्ण । इस समय पृथ्वी पर वनस्पति, पर्वतादि की सृष्टि हुई थी। जैसा कि हम जानते हैं वनस्पति, पर्वतादि में जीवित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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