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खजुराहो की जैन मूर्तियां
शांतिनाथ मंदिर (मंदिर ।)
मन्दिर में १६.वें जिन शांतिनाथ की चमकदार आलेप वाली १२ फीट ऊची एक कायोत्सर्ग मूर्ति है । कनिंघम ने इस मूर्ति पर १०२८ ई० का लेख देखा था, जो संप्रति प्लास्टर के अन्दर छिप गया है ।
भब हम खजुराहो की जिन एवं यक्ष-यक्षी मूर्तियों का प्रतिमाशास्त्रीय विवेचन करेंगे। ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त मन्दिरों के अतिरिक्त स्थानीय नवीन जैन मन्दिरों एवं तीन संग्रहालयों (शांतिनाथ, पुरातात्त्विक एवं जाडिन) में भी जिन एवं यक्ष और यक्षियों की अनेक मूर्तियां हैं। प्रस्तुत अध्ययन में उन सभी का उपयोग किया गया है।
जैन देवकुल में जिनों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उन्हें देवाधिदेव कहा गया है। जैन देवकुल के अन्य सभी देवता किसी न किसी रूप में सहायक देवता के रूप में जिनों से ही सम्बद्ध हैं । बर्तमान अवसर्पिणो युग में कुल २४ जिनों की कल्पना की गयी है, जिनमें से केवल अंतिम दो जिनों पार्श्वनाथ एवं महावीर, की ही ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। प्राचीनतम जिन मूर्ति लगभग तीसरी शती ई० पू० की है । यह मूर्ति पटना के समीप. : लोहानीपुर से मिली है और संप्रति पटना संग्रहालय में है । मूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा स्पष्टतः इसके जिन मूर्ति होने की सूचना देते हैं । लोहानीपुर से ही शुगकाल या कुछ बाद की एक अन्य मूर्ति भी मिली हैं । लगभग दूसरी-पहली शती ई० पू० की पार्श्वनाथ को एक कायोत्सर्ग मूर्ति (कांस्य) प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में सुरक्षित है। पार्श्वनाथ निर्वस्त्र है और उनके सिर से ऊपर पांच सर्पफणों का छत्र है। लगभग पहली शती ई० पू० की पार्श्वनाथ की एक अन्य कायोत्सर्ग मूर्ति चौसा (बिहार) से मिली है । यहां भो पार्श्वनाथ निर्वस्त्र है, और उनके सिर पर सात सर्प फणों का छत्र है" । उपर्युक्त प्रारम्भिकतम जिन मूर्तियों में वक्षःस्थल पर श्रीवत्स-चिह्न का अंकन नहीं हुआ है। जिनों के वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न का अंकन सर्वप्रथम पहली शती ई० पू० में मथुरा में प्रारम्भ हुआ। लगभग पहली शती ई० पू० में हो मथुरा के आयागपटों पर सर्वप्रथम जिनों का ध्यान मुद्रा में अंकन भी प्रारम्भ हुआ। ज्ञातव्य है कि जिन मूर्तियां सदैव केवल इन्हीं दो मुद्राओं में बनीं ।
कुषाणकाल में मथुरा में जिनों की पर्याप्त मूर्तियाँ बनीं। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ के अतिरिक्त मथुरा से संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ एवं महावीर की कुषाण कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। कुषाणकाल में ही सर्वप्रथम जिन मूर्तियों में प्रातिहार्यों, धर्मचक्र, मांगलिक चिन्हों एवं धर्मचक्र के दोनों ओर उपासकों का अंकन प्रारम्भ हुआ। कुषाणकाल में आठ में से केवल सात ही प्रातिहार्य (सिंहासन, प्रभामण्डल, चामरधर सेवक, उड्डीयमान मालाधर, छत्र, चैत्यवृक्ष एवं दिव्यध्वनि) प्रदर्शित हुए। जैन परम्परा में वर्णित सभी आट प्रातिहार्यों का अंकन गुप्त काल में प्रारम्भ हुआ। कुषाण काल में ऋषभनाथ एवं महावीर के जीवन दृश्यों का भी अंकन हुआ।
जिन मूर्तियों के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल विशेष महत्त्वपूर्ण था । जिन मूर्तियों की कई महत्वपूर्ण लाक्षणिक विशेषताएं सर्वप्रथम गुप्त काल में हो नियत हुई । गुप्तकालीन ग्रंथ
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