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कणिहिं कण्णाहरणई रूप्पिय गलि कंठु ल्लियाहिं सोह' तिहिं कडियलि सोमालिय सो सोहइ जिम जिम कण्डु वइ सु थाइय
जा उच्छगि लेइ करइ, रयणसुवण्णणिहाणु जिम,
गेह' गणि भमेइ
धुक्कड पुणु लग्गिवि उन्भउ ठाइ खणु "धावर जसोय वलि वलि भांति जिम जिम वालउ विद्धिहिं जाइ .: उच्छंगि जसोयहिं पुणु चडेइ
कडूढेबिणु लोणिउ खाइ पुणु ढाल मंथणि महियह भरिय बोल्लंत फुल्लवयणु पियइ खणि रोवइ हसइ पडइ धाइ
गोड असेसह मंडण', अक्ख वडूढ वइरियहौं,
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हरिवल्लभ भायाणी
करहिं कय समणोहर हेमिय धाइहिं घुग्घुराहिं वज्जं तहिं वालउ सम्वह मणुवि सु मोहइ नंदजसोयहु तोसु ण माइय
घन्ता
उष्णइय सरइ, जाणइ णिमिसु ण मुकचइ | पुण्णेहिं तिम, जणजणहु अइयारे' रुच्चर ( ३ )
'उज्जोउ णाई सवह' करेइ अक्खुडइ पडइ गइ दिंतु पुणु सिरु चुं विवि हवसे हसति अविवि पर एक्केक देइ मथादिदु विहुँ करहिं लेइ जसोय रडइ गवि गणइ खणु तहिं खेल्लइ दरिसइ वहु चरिय कोडे खुल्लावइ जो णियइ पुणु धूलिहिं तणु मंडेवि ठाइ
घन्त्ता
खिल्लावण ं, र घवह,
सुद सुहावउ णंदहु णंदणु जिम जिम विद्धिहि जाइ जणद्दणु
"कई लक्षणों, गुणों और पुण्यों से युक्त वह शिशु जैसे जैसे वृद्धि पाता गयो बैसे वह अतीव सुंदर होता गया । गोपियाँ उसके अंगों को अमृतदृष्टि से सिंचित करती थीं । श्रो किसी तरुणी के दृष्टिपथ में कृष्ण आता था वह किसी निमित्त से उसका मुख निहार लेती थी, और गोद में लेकर उसका मुंह अपने स्तन से लगाती थी। कानों में कुण्डल, हाथों में कड़े, गले में कंठल, पादों में ठनकते घूघरू, कटि पर मेखला - इनसे सुहाता शिशु सभी के मन मोहित करता था । बैठना सीखते उसको देखते हुए नन्द-यशोदा की तुष्टि की कोई सीमा न रहती थी। अपने हाथों में से और गोद में से उसको रत्नसुवर्ण की निधि के नाई वे क्षणभर भी अलग नहीं करते थे ।
घुटने खींचते घूमता वह घर के अंगना को उजियारा करने लगा । सट कर कुछ देर खडा रहे और कदम उठाते ही लडखडाए और लुढ़क जाय । “लौट के आ, लौट के आ" कहती और हंसती हुई यशोदा दौड कर उसको उठा लेती थी और मस्तक चूमती थी । कुछ बड़े होने पर कृष्ण स्थिरता से कदम उठाने लगा । वह कभी जशोदा की गोद में चढ़ कर बैठे, कभी दोनों हाथों से मथानी कसकर पकड़ रखे, कभी मक्खन उठा कर खा जाय और यशोदा के चिल्लाने पर भी रुका न रहे । दहीं से भरी मथनी ढरकाय । ऐसे तरह तरह की
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