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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
तज्जङ्घे जयलक्ष्म्यास्तु दोलास्तम्भाविवाधिकम् । बमतुश्चरणौ तस्य स्थलान्जे जिग्यतुः श्रिया ॥६५॥
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तद्वपुस्तच्च लावण्यं तद्रूपं तद्वयः शुभम् ।
प्रभोः सर्वाङ्गसौन्दर्यम् सर्वैपम्या तिशाय्यभूत् ॥ ६६ ॥
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मानोन्मानप्रमाणैस्तदन्यूनाधिकमाबभौ । प्रशस्तैर्लक्षणैर्व्यञ्जनानां
नवशतैर्युतम्
दृष्ट्वा तदद्भुतं रूपमप्राकृतम पीशितुः । जनानां नेत्रभृङ्गाली तत्रैवाऽरमतानिशम्
॥६७॥
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पितरावथ वीक्ष्यास्य तारुण्यारम्भमुच्चकैः । चिन्तयामासतुः कन्या कोपयामोचिता भवेत् ॥ ६९ ॥ काचित् सौभाग्यभाग्यानां शेवधिः पुण्यशालिनी । सदृशाऽभिजनाऽस्य स्ताद्बधूर्दध्यौ पिता हृदि ॥ ७० ॥ अथान्यदा सभाssसीनोऽश्वसेनः सह राजभिः । आगाद् देशान्तराद् दूतः प्रतीहारनिवेदितः ॥७१॥
आइतोऽथ नृपेणाऽसौ प्राविशन्नृपमन्दिरम् । सोपहारं नमश्चक्रे अश्वसेनं नृपुङ्गवम् ॥७२॥
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(६५) उसकी दोनों जंघाएँ विजयलक्ष्मी के झूले के खम्भे की भाँति थीं । उसके दोनों चरण (अपनी ) कान्ति से स्थलकमल को जीत लेते थे । (६६) प्रभु का वह शरीर, वह सौंदर्य, वह रूप, वह शुभ अवस्था और वह सर्वांग सौंन्दर्य सब उपमानों से बढ़कर था । (३७) मान और उन्मान के प्रमाणों से अन्यूनाधिक तथा अंगोपाङ्ग के नौ सौ शुभ लक्षणों से युक्त वह शरीर शोभायमान था । (६८) उस प्रभु के अद्भुत दिव्य रूप को देखकर लोगों की नेत्रभ्रमर के रात-दिन वहीं पर रमण करने लगी । (६९) पार्श्वदेव की उन्नत समावस्था को देखकर माता-पिता ने सोचा कि कौन कन्या इसके विवाह योग्य होगी ! ( ७० ) कोई सौभाग्य रूप भाग्य की भण्डार, पुण्यशालिनी, वंशानुकूल ऐसी वधू इसकी हो ऐसा पिता ने मन में ध्यान किया (अर्थात् विचार किया) । (७१) एक बार राजा अश्वसेन अनेक राजाओं के साथ सभा में बैठे हुए थे । ( तभी) देशान्तर से एक दूत आया जिसकी जानकारी प्रतिहारी ने राजा को दी । ( ७२ ) राजा ने दूत को बुलवाया और राजभवन में प्रवेश करते हुए उसने (उस दूत ने) उपहार सहित नृपश्रेष्ठ अश्वसेन को नमस्कार किया ।"
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