Book Title: Sambodhi 1981 Vol 10
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 335
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित कम्बुग्रीवाऽस्य रुरुचे रोचिषा रुचिकृतिः । नौलोक्यश्रीजयेनेव याऽऽस्ते रेखात्रयाङक्तिा । ५७॥ मुक्तामणिमयी कण्ठे हारयष्टिविभोर्यभात् । । गुणिप्राग्रहास्येयं गुणपवितरिवोज्ज्वला ॥८॥ जगलक्ष्मी कृतावासावंस वस्य रराजतुः । अंसौ लक्ष्मी-सरस्वत्योर्धात्रा पुत्रीकृती विव ॥५९॥ केयू भूषितौ तस्य बाहू धत्तः श्रियं परां।। फलन विव कल्पद् जगजनफलप्रदौ ॥६॥ करशाखा बभुस्तस्याऽऽयताः शौणनखाङ्किताः । दशावतार चरितोद्योतिका दीपिका इव ॥६१॥ नाभिलावण्यसरसीसनाभिः शुशुभेतर!म् ।। मध्येकायं सुगम्भीग सावर्ता दीप्तिनिर्भरः ।।६२॥ समेखलं च भूभर्तुः सांशुक जघनं दधौ । ... श्रियं गिरेतिम्बस्य शरदभ्रावृतस्य च ।६३॥ तदूरुद्धयमद्वैतश्रिकाऽभ्राजत सुन्दरम् । स्मर-रत्योश्च दम्पयोः कीर्तिस्तम्भद्वयं नु तत् ॥६॥ (५७) कान्तियुक्त, सुन्दर आकृति वाली, शंख जैसी उस की ग्रीवा (गर्दन) शाभायमान थी और तीनां लोकों की श्री को पराजित करने के कारण से ही मानो उस पर (गर्दन पर) तीन रेखाएँ अंकित थीं । (५८) उस प्रभु के गले में मोतियों व मणियों की हारयष्टि गुणोजनों में उत्तमोत्तम ऐसे प्रभु के गुणों का भाँति उज्ज्वल थी । (५९) जगत्लक्ष्मी के आवासस्थानरूप उसके दोनों कन्धे शोभित थे । इन दोनों कन्धों को विधाता ने मानो लक्ष्मी और सरस्वती के पुत्रतुल्य बनाया था। (६०) भुजबन्धों से शोभित उसके दोनों बाह परम शोभा को धारण करते थे मानों संसार के लोगों को पवित्र पुण्यफल देनेवाले फलयुक्त दो कल्पवृक्ष ६१) उस महाप्रभु के हाथ की अतीव विस्तृत, लाल नाखुनों से अंकित अंगुलियाँ भावान् के दशावतारचरित की द्योतक दीपिकाओं (दीपों) की तरह सुशोभित थीं । (६२) मध्यभाम में अत्यन्त गम्भीर, आवों से युक्त और कान्ति के निर्झर वाली उनकी नाभि लावण्य की निर्झरनी के समान शोभात थी। (६३) उस पृथ्वीप.ते पार्श्व का मेखलायुक्त तथा वस्त्रयुक्त जघनस्थल शरदकालीन बादलों से घिरे हुए गिरि के नितम्ब की शोभा को धारण करता + था। (६४) उसके दोनों उरु अवर्णनीय कान्ति से सुशोभित थे । वे दोनों (ऊरु) मानो कामदेव और रति दम्पति के कीर्ति-स्तम्भ थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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