Book Title: Sambodhi 1981 Vol 10
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 296
________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य ध्रुवं स नाकलोकोऽयं त इमे नाकिनः सुराः । कनकप्रमजीवोऽहं चारित्रार्जितपुण्यभाक् ॥५७॥ विमान नन्दनोभासि मन्दारद्रुमवेष्टितम् ।। एताश्चाप्सरसो नृत्य-गीत-वादित्रसादराः ॥५८॥ निश्चिकाय चिरं यावदिति देवः स्वसम्पदम् । अथो व्यजिज्ञपन् देवा 'जय'-'नन्दे'तिशंसिनः ॥५९॥ स्वामिन्निदं हि कर्तव्यं देवानां पुण्यशालिनाम् । प्रागर्हत्प्रतिमा पूज्या विधिना शिवशसिनी ॥६॥ ततः पश्य निजानीकं गान्धर्वादिगणैर्वृतम् । सुराङ्गनाऽङ्गलावण्यलीलाः स्मृतिपथं नय ॥६१॥ तदेवं देवविज्ञप्त्या हृदि युक्तिं व्यचिन्तयत् । यद्यप्यचेतनं बिम्बं निग्रहानुग्रहाऽक्षमम् ॥६२॥ तथापि वीतरागस्य शुक्लध्यानमयात्मनः । । बद्धपद्मासनस्येयं मूर्तिस्फूतिर्विजम्भते ॥६३॥ स्त्रीशस्त्ररागद्वेषाङ्कपङ्कशङ्काविवर्जितः । निर्दोषो भगवानेव कृतकृत्यो निराकुलः ॥६४॥ . (५७) निश्चित यह स्वर्गलोक है। ये स्वर्गस्थ देवता है । मैं कनकप्रभ नामक जीव हूँ। मपने चरित्र से हो मैं पुण्यफल को भोगने वाला हूँ। (५८) नन्दनवन में चमकने वाला, मन्दार वृक्ष से परिवेष्टित यह विमान है तथा ये नृत्य, गीत व वाद्य में आदरप्राप्त स्वर्य की मप्सराएँ हैं । (५९) बहुत देर तक उस देव ने अपने ऐश्वर्य का ज्योंहि निश्चय किया तदनन्तर देवताओं ने 'जय' 'नन्द' ऐसा कहते हुए निवेदन किया । (६०) हे स्वामिन् ! पुण्यशाकी देवताओं का यह करणीय हैं कि सर्वप्रथम कल्याणसूचिका अहं त्प्रतिमा का विधिविधान के साथ. पूजन करना चाहिए । (६१) उसके पश्चात् (आप) गन्धर्व आदि गणों से युक्त अपनी सेना को देखें तथा देवाङ्गनाओं के अंगसौन्दर्य की लीलाओं को स्मृतिपथ में लायें । (६२-६३) इस प्रकार देवताओं के निवेदन से वह अपने हृदय में युक्ति सोचने लगे-यद्यपि अचेतना प्रतिमा बन्धन व कृपा के लिए अक्षम है तब भी शुक्लध्यानमय आत्मा वाला, वीतराग जो पदमासन में स्थित है उसको मूर्ति की स्फूर्ति विकसित हो रही है । (६४) जिनके चिह (क्रम से ). श्री और शस्त्र है ऐसे राग और द्वेष के कीचड़ की शंका से भो जो मुक है (अर्थात्, ऐसी कीचड़ की शंका भी जिसके बारे में नहीं उठती) ऐसे वह भगवान् ही निर्दोष, कृतकृत्य भौर निराकुल है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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