Book Title: Sambodhi 1981 Vol 10
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 327
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित शक्राज्ञयाs isऽमियोगिका इत्यूचुः समन्ततः । शृण्वन्तु देवीवामाया जिनस्योपरि दुष्टधीः ॥२२५।। कती दुष्टां धियं तस्यार्जकमजरिवच्छिरः । शतधा स्फुटतादेवमुधुण्यागुः मुरासुराः ॥२२६॥ देवाः शक्रादयोऽष्टाह्निका! नन्दीश्वरे व्यधुः ।। सर्वेऽपि स्वालय जग्मुः कृतकृत्याः ससम्मदाः ॥२२॥ तद्रात्रौ हेमरत्नादिवर्षण जृम्भकामरैः । अश्वसेनगृहेऽकारि सान्द्रमानन्दनन्दितैः ॥२२८॥ यस्यैव जननाभिषेकमहिमा देवेन्द्रवृन्दारकैः । सानन्द सुरसुन्दरीपरिलसत्तौर्यत्रिकाडम्बरैः । दुग्धाम्मोनिधिवारिभिस्सह महाहर्षप्रकर्षाश्चितै रातेने स च सम्पदे भवतु वः श्रीपाश्र्वनाथप्रभुः ॥२२९॥ इते श्रीमत्परापरपरमेष्ठिपदारविन्दमकरन्दसुन्दरसास्वादसम्प्रीणितभव्यभव्ये पं० श्रीपद्ममेरुविनेयपं० श्रीपद्मसुन्दरविरचते श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्ये श्रीपायजन्माभिषेकोसको नाम तृतीयः सर्गः । २५-२२६) इन्द्र को आज्ञा से आभियोगिकों ने चारों ओर. यह कहा कि 'मौनये । बामादेवी और जिनदेव पर जो दुष्टबुद्धि करेगा उसका सिर अर्जक वृक्ष की भारी की तरह सौ टकडों में छूट जायेगा ।' सुर और असुर ऐसी उद्घोषणा करके चले गये । (२२७) इन्द्रादि देवताओं ने उस भगवान् को नन्दीश्वरद्वीप में अष्टान्हिक पूजा की तथा कृतकृत्य और हर्ष वाले होकर सभी देव अपने अपने स्थान को प्रस्थान कर गये । (२२८) वहाँ रात्रो में, अश्वसेन महाराजा के भवन में भावपूर्ण प्रसन्नचित्त होकर जृम्भक देवताओं ने स्वर्ण . रत्नों की वर्षा की। (२२९) सुरसुन्दरियों से शोभान्वित, तौर्यत्रिक वाद्यों की ध्वनि सेय अत्यन्त हर्ष से पुलकित देवेन्द्रों के समुदायों ने जिसके जन्माभिषेक की महिमा को क्षीरसागर के जल के साथ आनन्दपूर्वक फैलाया वह पार्श्वनाथप्रभु आपको सम्पत्ति के लिए हो । - इति श्रीमान्परमपरमेष्ठों के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रस के स्वाद से . भव्यजनों को प्रसन्न करने वाले, पं० श्रीपद्ममेरु के शिष्य पं० श्रीपदम सुन्दर कवि द्वारा रचित श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्य में "श्रीपश्वजन्माभि षेक उत्सव" नामक यह तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340