Book Title: Sambodhi 1981 Vol 10
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ सुन्दरसूरिविरचित पयः पूरैर्विलुप्तांशुप्रतापं चण्डरोचिषम् । तारामणः शशिभ्रान्त्या तमसेवीत् परिभ्रमन् ॥ १६२॥ जिनस्नानाम्बुपूरेण नृलोके निगमादयः । निरीतयो निरातङ्काः प्रजाः सर्वाः पवित्रिताः ॥ १६२॥ Jain Education International नृलोकस्यैव गरिमा त्रिजगत्सु विशिष्यते । यत्रावतीर्य भगवान् पुनाति भुवनत्रयम् ॥ १६३॥ वत्सु रत्नदीपेषु पठत्सु सुरबन्दिषु । गद्यपद्यात्मकं स्तोत्रं विभोर्वैभवर्शसनम् ॥१६४। निन्दत्सु मृदङ्गेषु गायन्तीषु कलस्वरम् । किन्नरीषु च गन्धर्वैः प्रारब्धे तत्र ताण्डवे ॥ १६५॥ नृत्यन्तीषु सुरस्त्रीषु मेरुरङ्गे सविभ्रमैः । अग्रहारैर्लयोपेतैः कारणैः सपरिक्रमैः ॥१६६॥ कृतमङ्गलसङ्गीतं शृण्वत्सु मघवादिषु । जयनन्दारवोन्मिश्रप्रतिध्वानो विजृम्भितः ॥ १६७॥ तौर्यत्रिकमहाध्वानोsपूरयद् रोदसी असौ । चक्रः सुरासुराः सर्वे मन्दारसुमवर्षणम् ॥१६८॥ (१६१) पानी को बाढ से जिसकी किरणों आ प्रताप नष्ट हो गया है उसको चन्द्र समझकर तारागण उसको परिक्रमा करते हुए सेवा कर रहे थे । (१६२) भगवान जिल arram की बाढ से मनुष्यलोक में निगम (सार्थवाह) आदि समस्त प्रजा इतियों से रहित भातंक से मुक्त और शुद्ध बनी । ( १६३) मनुष्य लोक की गरिमा ( विशिष्टता) तीनों में उत्तम है, जहाँ पर भगवान् जिनदेव ने जन्म लेकर मानों तीनों लोकों को पवित्र किया है । ( १६४ - १६५) रत्नदीपों के जलने पर, प्रभु के वैभव को प्रकट करने स्तोत्र का पाठ दिव्य स्तुतिपाठकों के द्वारा किये जाने पर, सदों के पाने पर, किन्नरियों के द्वारा मधुरगान होने पर गन्धर्वो ने ताण्डवनृत्य शुरू किया । (१६६-१६७) हावभाववाले लबोपेत तालबद्ध और बलयाकार भ्रमणों से युक्त अभिनयों से देवज्ञनाओं के द्वारा मेरु रंगभवन में नृत्य किये जाने पर, किये गये मंगल संगीत को इन्द्र आदि द्वारा सुने जाने पर, 'ब' 'नन्द' शब्दों की आवाज से मिश्रित प्रतिध्वनि फेल गई । (१६८) तौर्यत्रिक (वाय, गान और नृत्य ) को ध्वनि पृथ्वी और आकाश को पूर्ण कर रही थी। सुर और असुर सभी मन्दार पुष्पों की वर्षा कर रहे थे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340