Book Title: Sambodhi 1981 Vol 10
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 293
________________ पचासुन्दरसूरिविरचित विजहार जिनेन्द्रोऽपि निर्ममो विषयान्तरम् । .. कनकप्रभभूपालोऽन्यदाऽर्हद्धर्मदेशनाम् ॥३३॥ विशुद्धचेतसा भन्यो भावयन् जातभावनः । जातजातिस्मरः पूर्वभवान् दृष्ट्वा व्यरज्यत ॥३४॥ लघूपदेशतोऽपि स्याद् निर्वेदो लघुकर्मणाम् ।। प्रान्तेऽपि मोहमुग्धानां पापधीन निवर्तते ॥३५॥ दत्त्वा स्वसूनवे राज्यं स्वयं गत्वा जिनान्तिकम् । : प्रव्रज्यां जगृहे जैनी निर्विध भवभावतः ॥३६॥ अधीतैकादशाङ्गोऽयं रत्नत्रयधरो मुनिः ।। शुद्धलेश्यः प्रशान्तात्मा जितरागाद्युपप्लवः ॥३७॥ स राजर्षिस्तपस्तेपे बाहयमाभ्यन्तरं द्विधा । " स्वकर्मनिर्जराहेतोश्चक्रे स्थानकविंशतिम् ॥३८॥ अर्हतामथ सिद्धानां भक्तिं संघस्य सोऽकरोत् । गुरूणां स्थविराणां च बहुश्रुततपस्विनाम् ॥३९॥ ज्ञानोपयोगमाभीक्ष्ण्याद् दर्शनं विनयं. व्यधात् । षोढाऽथाऽऽवश्यकं शीलवतेष्वनतिचारताम् ॥४०॥ (३३-३४) वे ममत्वमुक्त जिनेन्द्र भगवान् भी अन्य प्रदेश को चले गये । . कमकाम राजा का भव्य जीव, दूसरे ही दिन, जिनदेव को धर्म देशमा को विशुद्ध चित्त से विचारता. हुआ, भावना और जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर, पूर्वभव को देख कर विरक्त हो गया ।" (१५) अल्प कर्मों वाले व्यक्तियों को साधारण उपदेश से भी निर्वेद अर्थात् बैराग्य उत्पन्न.. हो जाता है और मोह से मूढ़ लोगों को पापबुद्धि अन्त तक निवृत्त नहीं होती। (३६) उस राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर, स्वयं जिनदेव के पास पहुँच कर, संसार के, पदार्थों से विरक्त होकर, जैन धर्म की प्रवज्या ग्रहण कर ली ॥ (३७) उस मुनि ने एकादश अगों का अध्ययन किया । शुद्धलेश्या वाले प्रशान्त आत्मा मुनि ने रागादि उपद्रवों को. जीत लिया ॥ (३८) अपने कर्म की निर्जरा करने के लिए. उस मुनिराज ने बाह्य और भाभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप किये तथा (इसके साथ ही) बीसस्थानक तप भी किये । (३९) उस. मुनिराज ने अर्हतों को, सिद्धों की, (चतुर्विध) संघ को, स्थविरों की, ज्ञानियों की और तपस्थिों की सेवा (भक्ति) की । (४०) वह बारम्बार ज्ञानोपयोग, दर्शन व विनय को प्रगट करता था। वह छः प्रकार के आवश्यक का पालन करता था तथा वह निरतिचार शोल और उसका . पालम करता था। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org


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