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अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य
कोगा वह करता था । गाल फुला कर बोलता हुआ वह बहुत प्यारा लगता था। जो कोई उसको देखता था वह कौतुकवश उसको बुलाए बिना रह नहीं सकता था । पल में वह
सता था तो पल में रोता था । पल में गिर पडता था तो पल में दौडता था । तो किसी समय शरीर को धूल से लींपता था । सारे गोष्ठ का मण्डन और खिलौना, भतीव सुहावना नन्दनन्दन जैसे वृद्धि पाता गया, वैसे शत्रुओं के असुख की और बान्धवों की प्रीति की पद्धि होती गई।
उपसंहार
लगभग आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के अपभ्रंश साहित्य के कृष्ण काव्य की इस झांकी से प्रतीत होगा कि उस साहित्य में कृष्णचरित के निरूपण की (और विशेषरूप से बालचरित्र के निरूपण की ) एक बलिष्ठ परम्परा स्थापित हुई थी। इस में भावाले वन एव वर्णनशैलो की दृष्टि से उल्लेखनीष गुणवत्ता का दर्शन हम पाते हैं। कृष्णकाब्य की सुदीर्घ और विविधभाषी परम्परा के कवियों में स्वयम्भू और पुष्पदन्त निःसन्देह उच्च स्थान के अधिकारी हैं, और इस विषय में बाद में सूरदास आदि जो सिद्धिशिखर पर पहुँचे है उसके लिए समुचित पूर्व भूमिका तैयार करने का बहुत कुछ श्रेय अपभ्रंश कवियों को देना होगा । भारतीय साहित्य में कृष्णकाब्य की इस दीप्तिमान परम्परा में एक ओर शंस्कृत-प्राकृत का कृष्णकाब्य तो दूसरी ओर भाषा-सोहित्य का कृष्णकान्य इन दोनों के बीच अपभ्रश का कृष्ण काब्य एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और निजी वैशिष्टय एवं व्यक्तित्व से युक्त कडी है ।
इस लेख का 'सम्वोधि' के लिए मुद्रण कार्य प्रायः समाप्त हो गया था तब पता चला किकई साल पहले अन्यत्र प्रकाशित होने वाला यह लेख दो बार प्रकाशित हो चूका है। . हमें खेद है कि उन प्रकाशकों की ओर से कई बार पूछताछ करने पर भी हमें कोई सुचना न मिली।
उक्त पूर्व-प्रकाशन के स्थान इस प्रकार हैं :-- १. भारतीय भाषाओं में कृष्ण-काव्य, खण्ड-१, (पृ. १३८-१७३), मध्यप्रदेश साहित्य ___ परिषद् भोपाल, १९७९ । १, कर्मयोगी केसरीमल सुराणा अभिनन्दन ग्रंथ, १९८२ ।
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