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माण्डवगढ़ के महामन्त्री पेथडशाह ने कितने जिन-मन्दिर बनवाये ? १७
सुकृतसागर चतुर्थतरंग में पेथड़ निर्मापित ८४ जिनालयों का उल्लेख करते हुए स्थानों के नाम भी प्रदान किये हैं:
श्रुत्वा गुरुगिरं पृथ्वीधरोऽथ पृथुपुण्यधीः । चैत्यं न्यस्ताऽऽदयतीर्थशं द्वासप्तति जिनालयम् ।।४०॥ शत्रनयावताराख्यं रैदण्डकलशांक्तिम् । द्रम्माष्टादशलक्षाभिर्मण्डपान्तरचीकरत् ॥४१॥ युग्मम् । बिभ्रन्मण्डपमुदण्ड कोटाकोटीति विक्षतम् । द्वासप्ततिं च रैदण्डकुम्भान्भाराष्टकात्मकान् ॥४२॥ शत्रुजये श्रीशान्त्यहच्चैत्यमत्यक्षिशैत्यदम् । .ओङ्कारे चैकमुत्कृष्टतोरणाङ्कमरीरचत् ॥४३॥ युग्मम् । भारतीपत्तने तारापुरे दर्भावतीपुरे । सोमेशपत्तने वाकिमान्धातृपुरधारयोः ।। ४४ ॥ नागहृदे नागपुरे नासिक्यवटपद्रयोः । सोपारके रत्नपुरे कोरण्टे करहेटके ॥ ४५ ॥ चन्द्रावती-चित्रकूट-चारुपैन्द्रीषु चिक्खले । विहारे बामनस्थल्यां ज्यापुरोज्जयिनीपुरोः ॥ ४६ ।। जालन्धरे सेतुबन्धे देशे च पशुसागरे । प्रतिष्ठाने वर्धमानपुर-पर्णविहारयोः ॥ ४७ ॥ हस्तिनापुर-देपालपुर-गोगपुरेषु च । जयसिंहपुरे निम्बस्थूराद्रो तदधो भुवि ।। ४८ ॥ सलक्षणपुरे जीर्णदुर्गे च धवलक्के । मकुडयां च विक्रमपुरे दुर्गे मंगलतः पुरे । ४९ ॥ इत्यायनेकस्थानेषु रैदण्डकलशान्विताः । चतुरडाधिकाशीतिः प्रासादास्तेन कारिताः ॥५०|| सप्तभिः कुलकम् ।
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सोमतिलकसूरि रचित प्रस्तुन स्तोत्र के प्रारंभिक ५ पद्यों में पेथड़ के सोजन्या दे गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है :
साधु पृथ्वीधर (पेथड) विधिपूर्वक दीनों को दान देता था । नृपति जयसिंह के द्वारा सम्मानित हुआ था । अरहंत और गुरुचरणों की भक्ति में तल्लीन रहता था । शीलादि श्रेष्ठ आचरणों के द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए मिथ्या बुद्धि और क्रोधादि शत्रुओं का नाश करता था ।
इसने अनेकों विशाल पौषधशालाओं का निर्माण कराया था । मन्त्रगर्भित स्तोत्र के पठन से शिवलिंग की विदीर्ण कर प्रकटित पार्श्वनाथ प्रतिमा को बो विद्युम्माली देव द्वारा निर्मित और पूजित थी तथा अतिशय युक्त थी-की पूजन करता था ।
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