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सत्यव्रत
गच्छति प्राप्नोति तत् वेलदिग्भागम्-इलादुगम्-इत्यर्थः । पुनः किंभूतम् 'गम्' रं रकार गच्छति । प्राप्नोति गम्-इलादुर्गनाम्ना प्रतीतम् । 'अपास्यभा' अम् अर्हन्तं सिद्धं पाति रक्षति- अपः आस्यमा मुखचन्द्रो यस्य । मास-सकारान्तः चन्द्रवाची । अपेतयुद् अश्व पा च अपौ-त्योः । लक्ष्मीः यस्य ईहक तः तकारः तेन यौति मिश्रोभवति-अपेतयुत् । 'धाभिनि' न विद्यते भी: यस्य अभिः, स चासौ नीः नायकः द्योः धनदः-तद्वद् अभिनीयंत्र तद् धाभिनि हरिप्रस्थम् । 'वेशौम्यो" वा अथवा ईशश्च चासौ सौम्यश्च । पक्षे 'बेरदिग्भागम्' बेरं शरीरं तस्य दिग देशः जन्मभूमिः तत्र भान्ति ईदृशा अगाः पर्वतास्तरवो वा यत्र । 'आगस्त्यम्' आगः अपराधः अन्यायः तं त्यजति इति 'ड' प्रत्यये आगस्त्यम् । सौभ्यः हरिः मुनीन्द्रः हरिप्रस्थं पर्वततटं प्रति प्रतस्थे।
मेघविजय ने शिशुपालवध के समस्यापादों का नवीन पदच्छेद के विना भी प्रासंगिक भिन्नार्थ करके पाठक को चमत्कृत किया है । इसके लिये उसने कहीं समस्या के पद/पदों का स्वरचित्त · विशेष्य पद/पदों के विशेषण के रूप में अन्वय किया है, कहीं उनका विचित्र पदच्छेद किया है और कहीं पदो के अज्ञात अथवा अप्रचलित अर्थ के द्वारा नवार्थ ग्रहण किया है । कतिपय उदाहरणों से तथ्य की पुष्टि होगी। १. . ननाम वामां समवेक्ष्य यं श्रितं हिरण्यगर्भागभुवं मुनि हरिः । १.१
हिरण्यवत् समुज्जवला गर्भा गभूः गर्भाशयस्थानं यस्याः ताम्-ईदृशीं वामां मातर भितम् आश्रितं यं पार्वजिनं मुनि समवेक्ष्य हरि ईन्द्रः ननाम इति । २. . न चास्त्यमुष्या नगरीति मे ऽकरोत् गुरुस्तवैवागम एष धृष्टताम् । १.३१
___ अमुष्याः पुर्याः गुरुस्तवा अधिकवर्णनयोग्या नगरी नास्ति इति आगमः सिद्धान्तः "टताम् अकरोत् । ३. उत्कन्धर दारुक इत्युवाच । ४२४.
दारूणि के मस्तके यस्य स भारवाही संघसारथिर्वा । ४. तदभिनन्दनमाशु रजकणैर्दिवि तता ततान शुकावलिः । ६.६३
तस्य आषाढस्य अभिनन्दनं वर्धापनम् । शुकावलिः शिरीषपुष्पराजिः । 'शुकं प्रन्थिपणे. ऽरलू शिरीषपुष्पयों' इति अनेकार्थः ।
___ माघ काव्य से गृहीत समस्याओं की सफल पूर्ति के लिये उसी कोटि का, वस्तुत: उससे भी अधिक, गुरु-गम्भीर पांडित्य अपेक्षित है । माघ काव्य की भांति मेघविजय की सर्वतोमुखी विद्वत्ता का परिचय तो उनके काव्य से नहीं मिलता क्यों क देवानन्द की विषयवस्तु ऐसी है कि उसमें शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रकाशन का अधिक अवकाश नहीं है । किन्तु अपने । कथ्य को जिस प्रौढ भाषा तथा अलंकृत शैली में प्रस्तुत किया है, उससे स्पष्ट है कि मेघ. विजय चित्रमार्ग के सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी तथा माघ की भाषा शैली में कहीं भी अन्तर नहीं दिखाई देता । अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये मेघविजय ने भाषा का जो हृदयहीन उत्पीडन किया है, उससे जूझता-जूझता पाठक झुंझला उठता है तथा भाषायी चक्रव्यूह में फंस कर वह हताश हो जाता है, परन्तु यह शाब्दी क्रीडा तथा भाषात्मक उछलकूद उनके गहन पाण्डिस्य तथा भाषाधिकार के द्योतक है, इसमें तनिक सन्देह नहों | मेघविजय का उद्देश्य ही चित्रकाम्य से पाठकको चमत्कृत करना है ।
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