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अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य पंचांगुलिपंचणहुज्जलंग
ण फुरियफणामणि वरभुअंग तहो तेहिं धरिउजइ फणकडप्पु णउ णायइ को कर कवणु सप्पु क्खिज्जइ णवर विणिग्गमेण उज्जलउ लेइउ सिरिसंगमेण विहडप्फबु पड-फड-झडउ देह गाडियहो विसहरु किं करेइ
घत्ता णत्येषिणु महुमहेण
कालिउ ण इयले भामियउ । भीसावणु केसहो णाई
कालद'डु उग्गामियउं ॥
(सं० ६, क. ३) ___'आनी श्याम कान्ति से नारायण कालिय को देख न पाया । उनको भ्रान्ति हो गई इससे नाग चीन्हा न गया । इतने में कालिय के फन के मणिगण झलमलाए। इस उद्योत से नाग. को अच्छी तरह पहचान लिया । 'गुणों से कौन भला बन्धन नहीं पाता ! अब सहस्रों संग्रामों के वोर मधुमथन ने पांव नखों से उज्जवल बनी हुई पांच उगली बाले अपने भुजदण्ड पसारे । मानो वे फणामणि से स्फुरित बड़े भुजग हो। इनसे उन्होंने कालिय के फणामण्डल को पकड़ लिया । अब कौन-सा हाथ है और कौन-सा सपें इसका पता नहीं चलता था । किन्तु श्रीपतिने.......निकलने से पा लिया (१) । कालिय व्याकुल होकर फणों से फटफंट झपट देने लगा। मगर विषधर 'गारुडो' को क्या कर सकता था ? कृष्ण ने कालिय को नाथ कर आकाश में घुमाया । मानों कंस के प्रति भीषण कालदण्ड उठाया ।'
मणिकिरणकरालियमहिहरे हिं विसहरसिहरसिलायलेहि णियवत्थाई कि समुज्जलई . पिंजरियई अउणमहाजलाई । तहिं हाउ गाउ णं गिल्लगह पुणु तोडिउ क'चणकमलसा ‘विणिवद्ध भारुप्परि विहाइ बीयउ गोवद्धणु धरित गाई नीसरित जणद्दणु दणुविमहि णं महणे समसए मदरदि तडि भारु पडिच्छिउ हलहरेण ण बिजुजु सियजलहरेण गोदई समप्पेव आयरेण सम्भा भायरु भायरेण
घचा बलए। अहिमुहु एतु
हरि अवरु डिउ तहिं समझ सियरक्खें तामसपक्खु
णाइ पह तरि पाडवइ ।
(स० ६, क. ४) ___ 'सर्प के शिरोमणियों को किरणों से पर्वत व्याप्त हो गए । उनसे कृष्ण के वस्त्र समुज्वल हो गए और यमुना का जलराशि रक्तवर्ण । वहाँ कृष्णने मद से आद' गण्डवाले गमराज की नाई स्नान किया और कांचन कमल का जूहा तोद लिया । शिर पर रखा हुआ पूला ऐसा भाता था मानों दूसरा गोवर्धन उठाया हो । शत्रु के मर्दन करने वाले जनार्दन बाहर निकले । मानों समुद्रमंथन को समाप्ति करके बाहर निकला हुआ मन्दराचल । किनारे पर हलधर ने कृष्ण से बोस ले लिया । मानों श्वेत बादल ने विद्यत्पुज को अपना लिया ।
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