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खजुराहो को जैन मूर्तियां साथ सिंहवाहन का प्रदर्शन महावीर के लांछन ( सिंह ) से प्रभावित प्रतीत होता है । पर यक्षी के साथ सिंहवाहन का प्रदर्शन परम्परा सम्मत हैं ।
___ सिद्धायिका को एक मूर्ति मन्दिर २४ के उत्तरंग पर भी है। चतुर्भुजा सिद्धायिका सिंह पर आरूढ़ और वरदमुदा, खड्ग, चक्र एवं जलपात्र से युक्त हैं । द्वितीर्थी, त्रितीर्थी एवं चौमुखी जिन मूर्तियां
- अन्य दिगम्बर स्थलों के समान ही खजुराहो में भो द्वितीर्थी एवं त्रितीर्थो जिन मूर्तियों का अंकन लोकप्रिय था । खजुराहो में द्वितीर्थी तथा त्रितीर्थी जिन मूर्तियो के क्रमशः नौ भौर एक उदाहरण हैं। इनमें दो या तोन जिनों की कायोत्सर्ग मूर्तियां बनी हैं। प्रत्येक जिनके साथ स्वतन्त्र सिंहासन एवं अन्य प्रातिहार्य तथा सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । यक्ष-यक्षो युगलों के करों में अभयमुद्रा ( या पद्म ) और पद्म ( या फल या जलपात्र ) प्रदर्शित है। मन्दिर ८ को त्रितीर्थी जिन मूर्ति ( ११ वीं शती ई० ) में अंतिम तीन जिनों, नेमिनाथ, पार्श्वमाथ, एवं महावीर की कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं । द्वितीर्थी मूर्तियों में जिनों के . लांछन नहीं प्रदर्शित है। इस वर्ग की जिन मूर्तियों का उद्देश्य सम्भवतः दो या अधिक . जिनों को समान महत्त्व के साथ निरूपित करना रहा है ।
खजुराहो में जिन चौमुखी का केवल एक उदाहरण है, जो पुरातात्त्विक संग्रहालय, खजुराहो (क्रमांक १५८८) में है । ग्यारहवीं शती ई० की इस मूर्ति में कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों की परम्परा में ही केवल लटकती जटाओं वाले ऋषभनाथ एवं सात सर्पफणों के छत्र वाले पार्श्वनाथ की पहचान सम्भव हैं। सभी जिनों के लांछनों से परिचित होने के बाद भी शेष दो जिनों के साथ लांछन नहीं उत्कोर्ण है । चार प्रमुख जिनों के अतिरिक्त चारों
ओर ४८ छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । इस प्रकार कुल ५२ जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जो सम्भवतः नन्दीश्वर द्वोप का भाव व्यक्त करतो हैं । यक्ष-यक्षी युगल का अंकन नहीं हुआ है और मूर्ति का ऊपरी भाग मन्दिर के शिखर के रूप में निर्मित है। मुख्य जिन मूर्तिया ध्यान मुद्रा में भासीन हैं।
पाद-टिप्पणी १. 'जेनास, ई० तथा आबोयर, जे०, खजुराहो, हेग, १९६०, पृ० ६१. २. कृष्णदेव 'दि टेम्पल्स ऑव खजुराहो इन सेन्ट्रल इण्डिया', ऐन्शियण्ट इण्डिया अ०
. १५, १९५९, पृ० ४५. ३. शास्त्री, परमानन्द जैन, “मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व", अनेकान्त वर्ष १९, अं०
१. १-२, पृ० ५७. ४. विजयमूर्ति (संपादक), जेन शिलालेख संग्रह, भाग ३, बम्बई, १९५७, पृ० ७९,
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