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दोनों हाथों में सिर्फ़ वास चूर्ण की कटोरी व थाली ग्रहण कर अंदर प्रवेश करें।
उस समय 'दुसरी - निसीहि' बोलनी चाहिए । प्रभुजी के पबासन से कुछ दूर और यथोचित अंतर रखकर खडे रहें । अंगुष्ठ और अनामिका अंगूली के सहारे वासचूर्ण को लेकर प्रभुजी को स्पर्श करे बिना (पूजा के वस्त्र हो तो भी ) अंगो से थोडी सी दूरी से वासचूर्ण पूजा करे। वासचूर्ण पूजा करते समय उसको छिडकना या जल्दी से एक साथ सभी अंगो में करना, यह एक प्रकार का अनादर है। बहुत धीरज से व बहुमान से भावपूर्वक पूजा करनी चाहिए। वासचूर्ण पूजा करने के बाद या पहले अपने हाथों से प्रभुजी के अंगों पर का वासचूर्ण अपने मस्तक पर डालना, यह घोर आशातना है। प्रभुजी का स्पर्श भी नही करना चाहिए ।
वासचूर्ण पूजा करने के पश्चात् प्रभुजी को अपनी पीठन दिखें, वैसे गर्भगृह से बहार निकलना चाहिए। बाद में रंगमंडप में आकर भाईओ व बहनों को प्रभुजी की बांई ओर खड़े-खडे धूपदानी या धूपकाठी को हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूप पूजा करनी चाहिए । फिर प्रभुजी के दाहिनी ओर भाई और बांई ओर बहनों खड़े-खडे प्रदक्षिणाकार से दीपक पूजा करनी चाहिए। धूप या दीपक पूजा करते समय थाली में धूप या दीपक ही रखना चाहिए, मगर दोनों एक साथ नही रखने चाहिए।
बाद में पाटे पर अक्षत नैवेद्य व फल पूजा ( इसका विस्तृत वर्णन मध्याह्नकाल की पूजा में बताया गया है। ) करनी चाहिए । फिर तीन बार दुपट्टा से भूमि प्रमार्जना करके अंग व अग्र पूजा से
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