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कारिकाः । ]
सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
अर्थ-तीर्थकर स्वयं बुद्ध ही होते हैं, वे किसीसे भी तत्वों का बोध प्राप्त नहीं करते । तथा उनका कभी भी चलायमान न होनेवाला सच्च- पराक्रम दूसरे प्राणियों का हित सिद्ध करने के लिये सदा उद्यत रहा करता है । उनके शुभ भावोंका इन्द्र और लौकान्तिकदेव भी अभिनंदनप्रशंसा किया करते हैं ।
जन्मजरामरणार्त्त जगदशरणमभिसमीक्ष्य निःसारम् । स्फीतमपहाय राज्यं शमाय धीमान् प्रवत्राज ॥ १५ ॥
अर्थ — उपर्युक्त गुणोंसे युक्त और अतिशय विवेकी भगवान् महावीर ने जब जगत्की समीक्षा - उसके गुणदोषों की पर्यालोचना की, तो उन्होंने उसको अंतमें निःसार ही पाया । उन्होंने देखा, कि यह संसार जन्म जरा और मरण इन तीन प्रकारकी अति पीड़ाओंसे व्याप्त है । तथा इसमें कोई भी किसीके लिये शरण नहीं है । अतएव उन्होंने परम शान्तिको प्राप्त करने के लिये विशद राज्यका भी परित्याग कर दीक्षा धारण की ।
प्रतिपद्याशुभशमनं निःश्रेयससाधकं श्रमणलिङ्गम् । कृतसामायिककर्मा व्रतानि विधिवत्समारोप्य ॥ १६ ॥
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अर्थ — भगवान् ने दीक्षा लेकर परमपुरुषार्थ - मोक्षके साधक अर्थात् जिसके धारण किये विना कर्मोंकी सर्वथा निर्जरा होकर आत्माकी पूर्ण विशुद्ध अवस्था नहीं हो सकती - उस श्रमण लिङ्ग - निग्रंथ जिनलिंगको धारण करके अशुभ कर्मोंका उपशमन कर दिया - उन्हें फल देकर आत्माको विकृत बनानेके अयोग्य कर दिया । सामायिक कर्मको करके विधिपूर्वक व्रतों का भी समारोपण किया ।
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भावार्थ - दीक्षा धारण करते ही भगवान्की अशुभ प्रकृतियों का उपशम हो गया, और वे सामायिक करने तथा व्रतों के पूर्ण करने में प्रवृत्त हुए । समय नाम एकत्वका है । एक शुद्ध आत्म तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये योग्य कालमें उसीका चिन्तवन करते हुए उसकी साधन
१-ज्ञानकी अपेक्षासे जीव दो प्रकारके माने हैं- स्वयंवुद्ध, बोधितबुद्ध | जिनको स्वयं तत्त्वोंका या मोक्षमार्गका बोध हो, उनको स्वयंवृद्ध और जिनको वह परके उपदेशसे हो उनको बोधितबुद्ध कहते हैं । भगवान् स्वयं बुद्ध होते हैं- उनका कोई गुरु नहीं होता । २-इन्द्र अपने समस्त परिकर और वैभवके साथ आकर भगवान् के दीक्षा- कल्याणका उत्सव किया करता है। ३-जब भगवान् दीक्षा धारण करनेका विचार करते हैं, और संसार के स्वरूपका चिन्तवम करते हुए अनित्य अशरण आदि वक्ष्यमाण बारह भावनाओंका पुनः २ स्मरण करते हैं, तब पाँचवें स्वर्गके लौकान्तिकदेव आकर उनकी स्तुति और प्रशंसा किया करते हैं। ये ब्रह्मलोक के अंतमें रहते हैं, इसलिये इनको लौकान्तिक कहते हैं । अथवा ये ब्रह्मचारी की तरह रहते हैं और इन्हें वैराग्य पसंद है, एक ही मनुष्यभवको धारण कर लोकका अंत कर देते हैं-मुक्त होते हैं इसलिये भी इनको लौकान्तिक कहते हैं । ४ - - अध्याय ७ सूत्र १६ की टीका -- सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ॥ ५ - - अध्याय ७ सूत्र १-२ में इसका लक्षण और भेदकथन है ।
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