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गृहस्थ जीवन
भोजन विशिष्ट श्रावकों को प्रदान किया और प्रतिदिन उन्हें भरत के भोजनालय में ही भोजन हेतु निमंत्रण दिया गया, और उन्हें यह आदेश दिया गया कि सांसारिक प्रवृत्तियों का परित्याग कर स्वाध्याय ध्यान आदि में तल्लीन रहें तथा मुझे यह उपदेश देते रहें कि "जितो भवान्, वर्धते भयं तस्मात् मा हन माहन" श्राप जीते जा रहे हैं, भय बढ़ रहा है एतदर्थ आप किसी का हनन न करें । उन श्रद्धालु-श्रावकों ने भरत के प्रदेश एवं निर्देशानुसार प्रस्तुत कार्य स्वीकार किया । सम्राट् भरत ने उनके स्वाध्यायहेतु ग्रार्य वेदों का निर्माण किया । +
जब भोजनलुब्धक श्रावकों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ने लगी, तब सम्राट् भरत ने सच्चे श्रावकों की परीक्षा को, और जो उस परीक्षण प्रस्तर पर खरे उतरे उन्हें सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के प्रतीक रूप में तीन रेखाओं से चिह्नित कर दिया गया । ११७ माहरण का उपदेश देने से वे ब्राह्मण कहलाये, ११८ और वे रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत के रूप में प्रचलित हो गईं ।
भरतोऽथ समाहूय, श्रावकानभ्यधादिदम् । गृहे मदीये भोक्तव्यं युष्माभिः प्रतिवासरम् || कृष्यादि न विधातव्यं किन्तु स्वाध्यायतत्परैः । अपूर्वज्ञानग्रहणं कुर्वाणः स्थेयमन्वहम् ॥ भुक्त्वा च मेऽन्तिकगतः पठनीयमिदं सदा । जितो भवान् वर्धते भीस्तस्मान्मा हन मा हन । – त्रिषष्ठि० १।६।१६० से २२६ "वेदे कासीयत्ति" आर्यान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति ।
- आवश्यक नियुक्ति गा० ३६६ की मलयगिरिवृत्ति पृ० २३६ ११७. ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्ग रेखात्रयं नृपः । वैकक्ष्यमिव काकिण्या विदधे शुद्धिलक्षणम् ||
- त्रिषष्ठि १६ । २४१
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(ख) आवश्यक चूर्णि० पृ० २१४ । ११८. क्रमेण माहनास्ते तु ब्राह्मणा इति विश्रुताः । काकिणीरत्नलेखास्तु,
प्रार्यज्ञोपवीतताम् ||
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- त्रिषष्ठि १६ । २४८
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