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तीर्थङ्कर जीवन
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एक साथ ही "यमक" और "शमक" दूतों के द्वारा सम्राट भरत को मिली।
आचार्य श्री जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है ।१६१
ये सारी सूचनाएं एक साथ मिलने से भरत एक क्षण असमंजस में पड़ गये १६३.-क्या प्रथम चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिए, या पुत्रोत्सव करना चाहिए ? द्वितीय क्षण उन्होंने चिन्तन की चाँदनी में सोचा-इनमें से भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न होना धर्म का फल है, पुत्र होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्ररत्न का उत्पन्न होना अर्थ का फल है।१६३ एतदर्थ मुझे प्रथम चक्ररत्न या पुत्ररत्न की नहीं, अपितु भगवान् की उपासना करनी चाहिए। क्योंकि वह सभी कल्याणों का मुख्य स्रोत है, महान् से महान् फल देने वाली है । १६४
१६१. श्रीमान् भरतराजर्षिः बुबुधे युगपत् त्रयम् । गुरोः कैवल्यसम्भूति सूतिञ्च सुतचक्रयोः ।
- महापुराण, पर्व० २४, श्लो० २ पृ० ५७३ १६२. पर्याकुल इवासीच्च क्षणं तद्योगपद्यतः । किमत्र प्रागनुष्ठेयं सविधानमिति प्रभुः ।
-महापुराण २४।२।५७३ (ख) उत्पन्नकेवलस्तात, इतश्चक्रमितोऽभवत् । आदौ करोमि कस्याऽर्चामिति दध्यौ क्षरणं नृपः ।
-त्रिषष्ठि० १।३।५१४ १६३. तत्र धर्मफलं तीर्थं पुत्रः स्यात् कामजं फलम् । अर्थानुबन्धिनोऽर्थस्य फलञ्चकं प्रभास्वरम् ।।
-महापुराण २४॥६॥५७३ (ख) क्व विश्वाभयदस्तातः ?, क्व चक्र प्राणिघातकम् ? .. विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः स्वानादिदेश सः ।
__-त्रिषष्ठि १।३।५१५ १६४. कार्येषु प्राग्विधेयं तद्धर्म्य श्रेयोनुबन्धि यत् ।। महाफलञ्च तद्देवसेवा प्राथमकल्पिकी ॥
--महापुराण जिन० २४।८।५७३
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