Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 151
________________ १३४ ऋषभदेव : एक परिशीलन सुखों से आध्यात्मिक सुख विशेष है । २४७ इसे ग्रहण करो, इसमें न कायरता की आवश्यकता है और न युद्ध का ही प्रसंग है । मूर्ख लकडहारे २४८ का रूपक देते हुए भगवान् ने कहा- एक लकड़हारा था, वह भाग्यहीन और अज्ञ था । प्रतिदिन कोयले बनाने के लिए वह जंगल में जाता श्रौर जो कुछ भी प्राप्त होता उससे अपना भरण पोषण करता। एक बार वह भीष्म - ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में थोड़ा-सा पानी लेकर जंगल में गया। सूखी लकड़ियाँ एकत्रित कीं । कोयले बनाने के लिए उन लकड़ियों में आग लगादी। चिलचिलाती धूप, प्रचण्ड ज्वाला, तथा गर्म लू के कारण उसे अत्यधिक प्यास लगी। साथ में जो पानी लाया था वह पी गया, पर प्यास शान्त न हुई । इधर उधर जंगल में पानी की अन्वेषणा की, पर, कहीं भी पानी उपलब्ध नहीं हुआ । सन्निकट कोई गाँव भी नहीं था, प्यास से गला सूख रहा था, घबराहट बढ़ रही थी। वह एक वृक्ष २४७. भगवती १४, उद्द े० २४८. ताहे इंगालदाहगदितं कति, जहा एगो इंगालदाहगो, सो एगं भायणं पाणियस्स भरेऊण गतो, तं तेण उदगं णिट्ठवितं, उर्वार आदिच्चो पासे अग्गी पुणो परिस्समो दारुगाणि कोट्टे तस्स घरं गतो, तत्थ पाणितं पीतो, एवं असब्भावपट्टवणाए कुवत लागणदिदहसमुद्दा य सब्वे पीता, ण य तण्हा छिज्जति, ताहे एगंमि तुच्छकुहितविरस - पाणिए जुन्नवभिरिंडे तणपूलितं गहाय उस्सिचति, जं पडितसेसं तं जी हाए लिहति से केस गं ! एवं तुब्भेहिवि अरणंतरं सव्व अत्तरा सब्वेऽवि सव्वलोए सद्दफरिसा अभूतपुब्वा तहवि तित्ति ण गता, तोरणं इमे मारगुस्सए असुइए तुच्छे अप्पकालिए विरसे कामभोगे अभिलसह, एवं वेयालीयं णाम अज्झयणं भासति "संबुज्झह किन्न बुज्झह" - आवश्यकचूर्णि जिनदास, पृ० २०६ - २१० ( ख ) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति । (ग) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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