Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 154
________________ तीर्थकर जीवन १३७ इस प्रकार अविद्या के द्वारा प्रात्म-स्वरूप आच्छन्न होने से कर्मवासनाओं से वशीभूत बना हुआ चित्त मानव को फिर कर्म में प्रवृत्त करता है। अतः जब तक मुझ परमात्मा में प्रीति नहीं होती तब तक देहबन्धन से मुक्ति नहीं मिलती ।२५२ स्वार्थ में उन्मत्त बना जीव जब तक विवेकदृष्टि का प्राश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टायों को अयथार्थ रूप में नहीं देखता है, तब तक अात्मस्वरूप विस्मृत होने से वह गृह आदि में ही आसक्त रहता है और विविध प्रकार के क्लेश उठाता है ।२५१ ___ इस प्रकार भगवान् की दिव्य देशना में राज्य-त्याग की बात को सुनकर वे सभी अवाक रह गये, पर शीघ्र ही उन्होंने भगवान् के प्रशस्त पथप्रदर्शन का स्वागत किया। अठानवें ही भ्राताओं ने राज्य त्यागकर संयम ग्रहण किया।२५४ । यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै; कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ।। --भागवत ५।५।१५६० २५२. एवं मनः कर्मवशं प्रयुङक्ते, अविद्ययाऽऽत्मन्युपधीयमाने प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे, न मुच्यते देहयोगेन तावत् ।। भागवत ५।५।६।५६० २५३. यदा न पश्यत्ययथा गुणेहां, स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् । गतस्मृतिविन्दति तत्र तापानासाद्य मैथुन्यमगारमज्ञः ॥ -भागवत ५।५।७१५६० २५४. (क) एवं अट्ठाणउईए वित्तेहिं अट्ठाणउई कुमारा पव्वइता। -आवश्यक चूर्णि (ख) एवं अट्ठाणउईवित्तेहि अट्ठाणउई कुमारा पव्वइयत्ति । -आवश्यक मल० वृ० प० २३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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